समाधान खोजें

Last Updated 18 Jan 2021 01:51:28 AM IST

सर्वोच्च अदालत के हस्तक्षेप के बावजूद, नये कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों और सरकार के बीच गतिरोध अभी लंबा खिंचता नजर आता है।


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सुप्रीम कोर्ट ने तीनों कृषि कानूनों के अमल पर तो फिलहाल रोक लगा दी है, लेकिन न तो खुद अदालत द्वारा गठित चार सदस्यीय कमेटी इस विराम से मिली राहत का विवाद के समाधान की ओर बढ़ने में उपयोग करने में समर्थ नजर आ रही है और न सरकार। उल्टे शीर्ष अदालत के दखल के बाद गुजरे एक सप्ताह में समाधान की राह कुछ-न-कुछ मुश्किल ही हुई है। जहां तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा कठित कमेटी का सवाल है, न सिर्फ आंदोलनकारी किसान संगठन समाधान के लिए सिर्फ सरकार से ही बातचीत करने के अपने फैसले पर कायम रहे हैं बल्कि उनके रुख के सामने खुद इस कमेटी का बिखरना शुरू हो गया है। कमेटी में रखे गए पंजाब से जुड़े किसान नेता, मान ने उसकी उपयोगिता में संदेह जताते हुए इस्तीफा दे दिया है।

दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुई नौवें दौर की सरकार और किसान नेताओं की बातचीत की विफलता के बाद, हालांकि दसवें दौर की बातचीत मंगलवार के लिए प्रस्तावित है, लेकिन उसमें किसी प्रगति की शायद ही उम्मीद हो। उल्टे, एनआइए ने प्रतिबंधित संगठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ के खिलाफ हाल ही में दायर एक एफआइआर के सिलसिले में, किसान नेताओं समेत इस आंदोलन से जुड़े कई लोगों को जिस तरह इस आंदोलन के लिए फंडिंग के संबंध में पूछताछ के नोटिस भेजे हैं, उससे बातचीत के लिहाज से माहौल सिर्फ  खराब ही हो सकता है। एनआइए की इस कार्रवाई से इसकी आशंकाओं को बल ही मिला है कि सरकार, किसान आंदोलन को दबाने के लिए सरकारी जांच एजेंसियों का सहारा ले रही है।

यह आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच अविश्वास की खाई और चौड़ी करने का ही काम करेगा। अगर समझदारी नहीं दिखाई गई तो यह सब दोनों पक्षों को 26 जनवरी को प्रस्तावित ट्रैक्टर रैली के मुद्दे पर अनावश्यक टकराव की ओर धकेल सकता है। जो कानून सरकार के अनुसार किसानों के फायदे में हैं, अगर किसानों एक बड़ा हिस्सा उनके विरोध पर कायम रहता है, तो इन कानूनों को थोपना न समझदारीपूर्ण होगा न जनतांत्रिक। चूंकि किसान सिर्फ सरकार से ही बात करना चाहते हैं, सरकार पर ही यह जिम्मेदारी है कि उनकी आशंकाएं दूर करने का कोई रास्ता निकाले।



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