बोझ वहां है
हाल में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट यानी फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट ने भारतीय बैंकिंग जगत के बारे में कुछ ऐसे तथ्य और अनुमान रेखांकित किए हैं, जिन पर चिंतन कर्म बहुत जरूरी है।
बोझ वहां है |
रिजर्व बैंक के अनुसार कोरोना महामारी का बैंकिंग जगत पर बहुत बुरा असर पड़ा है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में चिंता की गई है कि सितम्बर 2021 तक बैंकों का सकल एनपीए बढ़कर 14.8 फीसद तक हो सकता है। सितम्बर 2020 के आंकड़ों के मुताबिक सकल एनपीए 7.5 फीसद था। इसमें भी सरकारी बैंकों पर एनपीए की मार सबसे ज्यादा होगी। सितम्बर 2020 में सरकारी बैंकों का एनपीए 9.7 फीसद था, यह सितम्बर 2021 तक बढ़कर 16.2 फीसद तक पहुंच सकता है।
यानी जब भी अर्थव्यवस्था पर संकट आता है, तो सरकारी बैंकों की पिटाई ज्यादा होती है। इसकी ठोस वजह है। सरकारी बैंकों की मिल्कियत सरकार के पास होती है। सरकार को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए भी काम करने होते हैं। जिन कजरे को देने से निजी बैंक मना कर देते हैं, वो भी सरकारी बैंकों को देने होते हैं। क्योंकि अर्थव्यवस्था में गति लाने के लिए जो तमाम तरह के पैकेजों की घोषणा होती है, वो पैकेज भी सरकारी बैंकों पर बोझ बन जाते हैं। कुल मिलाकर सरकारी बैंक ऐसे माहौल में काम करने को मजबूत हो जाते हैं, जहां उनसे दोहरी उम्मीदें की जाती हैं कि वह धर्माथ की तरह काम करें, पर लाभ बखूबी कमाएं। फिर वही पुरानी मांग खड़ी हो जाती है कि सरकारी बैंकों में और पूंजी डाली जाए, क्योंकि पुरानी पूंजी डूब रही है या डूब गई।
पुरानी पूंजी डूबना तय है क्योंकि दिए गए कर्ज वापस नहीं आने। सरकारी बैंकों को लेकर सरकार को दोहरा रवैया छोड़ना होगा। उनसे यह उम्मीद करना कि वह डूबत कर्ज दें और लाभ भी कमायें, ठीक नहीं है। आखिर सरकारी बैंकों को एक ही लक्ष्य के साथ करना होगा। वरना तो उनकी दुर्गति तय ही है और साथ में दुर्गति होनी है करदाता के उस रकम की जो सरकारी बैंकों में बार-बार सरकार द्वारा डाली जाती है। कुल मिलाकर रिजर्व बैंक के आकलन की रोशनी में सरकारी बैंकों की भूमिका पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। कोरोना ने सरकारी बैंकों की समस्याओं में सिर्फ इजाफा नहीं किया है, बल्कि उन्हीं पुरानी समस्याओं को दोबारा रेखांकित किया है, जो पहले से ही मौजूद हैं।
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