समाधान का अवसर
राजधानी दिल्ली के इर्द गिर्द चल रहे किसान आंदोलन ने क्षेत्रीय और ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक प्रणाली से जुड़े अनेक महत्त्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया है।
समाधान का अवसर |
फिलहाल सरकार और न्यायपालिका का ध्यान कानून व्यवस्था की स्थिति तथा गणतंत्र दिवस समारोह के सामान्य रूप से संपन्न हो जाने पर केंद्रित है। सामान्य परिस्थितियों में कृषि कानूनों को लेकर किसानों की आशंकाओं का समाधान सहज रूप से संभव था, लेकिन आंदोलन के लंबा खिंचने के कारण उसमें जटिलता पैदा हुई तथा ऐसे तत्व आंदोलन में शामिल हो गए जिनका खेती और गांवों की समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है। सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल ने इसी तथ्य की ओर इशारा किया है।
सरकार जब सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र दाखिल करेगी तब इस बात का खुलासा होगा कि खालिस्तान समर्थक तत्व किस सीमा तक इस आंदोलन में शामिल हैं तथा वे आंदोलन को किस दिशा में मोड़ना चाहते हैं। कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई अनिश्चितकालीन रोक सामान्य कदम नहीं है। कार्यपालिका द्वारा पहले अध्यादेश जारी किया गया, फिर संसद (व्यवस्थापिका) ने कानून बनाया तथा न्यायपालिका ने कानून की संवैधानिक वैधता पर फैसला सुनाने के पहले ही उस पर रोक लगा दी। नये कृषि कानूनों को लेकर किसानों की कुछ आशंकाएं जायज हो सकती हैं, देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में इस बात की गुंजाइश है कि समाज के किसी भी तबके की आशंकाओं और शिकवा-शिकायत को दूर किया जाए।
सरकार की ओर से कानूनों में संशोधन की बात करना इसी परिपाटी का उदाहरण है। किसान संगठन यदि मोदी सरकार पर विश्वास नहीं करते तो न्यायपालिका ने उन्हें अपनी पहल पर एक और मौका उपलब्ध कराया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति के सदस्यों को लेकर आपत्तियों का निराकरण भी न्यायालय के जरिए संभव है। किसान संगठन न्यायालय से आग्रह कर सकते हैं कि वह ऐसे लोगों को समिति में शामिल करे जिन पर उन्हें भरोसा है। दुर्भाग्य की बात है कि किसान संगठन गठित समिति को सिरे से खारिज कर रहे हैं। लगता है कि किसान संगठनों में ऐसे तत्व सक्रिय हैं जो समस्या का समाधान बीच-बचाव से नहीं चाहते। किसान संगठनों के अड़ियल रुख से न तो किसानों का फायदा होगा और न ही समाज और देश का।
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