आंदोलन और सुप्रीम सुनवाई
केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच आज आठवें दौर की वार्ता से समाधान निकलने की उम्मीद हर किसी को है।
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दिल्ली की सीमा पर 40 दिन से ज्यादा समय से आंदोलनरत किसानों जहां तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर डटे हैं तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानूनी गारंटी मांग रहे हैं। मगर सरकार ने अभी तक तीनों कानून को वापस लेने पर किसी तरह की नरमी नहीं दिखाई है। हालांकि सरकार ने 30 तारीख की वार्ता में पराली जलाने और बिजली बिल को लेकर बने कानून को वापस लेने की किसानों की मांगों को मान लिया है। दरअसल, दोनों ही पक्ष अपने-अपने रुख में नरमी नहीं ला सके हैं। यही वजह है कि यह मसला ज्यादा गंभीर और जटिल हो चुका है। एक तरफ केंद्र का यह मानना कि कृषि बिल रद्द किए बगैर किसानों का दिल जीत लिया जाए वहीं किसानों के अपने तर्क हैं।
उनका मानना है कि इन कानूनों की मदद से कापरेरेट कंपनियां किसानों को अपना गुलाम बना लेगी। अब सबकी निगाहें सर्वोच्च अदालत की सुनवाई पर टिक गई हैं। अगर सर्वोच्च अदालत में केंद्र की दलील का गहराई से विश्लेषण करें तो यह बात आसानी से समझ में आ जाएगी कि वह किसान संगठनों से संवाद के रास्ते ही इस अहम मुद्दे का हल तलाशना चाहती है। यही कारण है कि केंद्र ने अदालत से कहा कि ‘चूंकि किसानों से वार्ता जारी है, लिहाजा वह अभी सुनवाई न करे। केंद्र के इस तर्क पर अदालत का दो टूक यह कहना कि वार्ता भले हो रही हो, किंतु किसी तरह की सकारात्मक खबर अभी तक नहीं निकल पाई है।’ साफ है कि अदालत तथ्यों से भली-भांति अवगत है और अगली सुनवाई (11 जनवरी) को वह कुछ महत्त्वपूर्ण फैसला ले सकती है।
इसलिए आज सरकार और किसान संगठनों के बीच भले बातचीत हो, लेकिन दोनों ही पक्ष अब शीर्ष अदालत के रुख के पश्चात अपनी रणनीति बनाएंगे। वैसे भी अभी तक हठ के साथ दोनों पक्ष जिस तरह आमने-सामने हैं, उससे गतिरोध बने रहने के ही आसार ज्यादा लग रहे हैं। चूंकि अब तक आंदोलन में करीब 50 किसानों की मौत हो चुकी है, इस नाते जल्द-से-जल्द इस गतिरोध से पार पाने की जरूरत है। किसान सड़क पर नहीं खेत में ही अच्छे लगते हैं। सरकार को भी इस बिल को ज्यादा आसान तरीके से किसानों को समझाने के लिए आगे आना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो निश्चित तौर पर अदालत अपने हिसाब से फैसला लेने को विवश होगी।
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