क्या बनेगी सहमति
राजधानी दिल्ली की सीमा पर तीन कृषि बिल के विरोध में महीने भर से डटे किसानों से सरकार की आज होने वाली वार्ता से उम्मीद की किरण जगी है।
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इससे पहले किसान संगठन और सरकार के बीच छह दौर की वार्ता में कोई समाधान नहीं निकल सका है। देखना होगा इस बार किसान संगठन लचीला रुख अख्तियार करते हैं या सरकार बड़ा दिल दिखाती है। हालांकि किसानों का कहना कि वार्ता के लिए सरकार के प्रस्ताव संजीदा और उत्साहवर्धक नहीं दिखते हैं। यानी अभी भी दोनों पक्षों में इस बात को लेकर संदेह है कि कौन किसकी बात कितनी तत्परता और संवेदना के साथ सुनता है? बातचीत दिखावे की न हो इस बात का प्रयास दोनों ओर से करना होगा। अगर वाकई में समाधान निकालना है तो कुछ बिंदुओं पर किसानों को झुकना होगा तो कुछ पर सरकार को किसानों की आशंकाओं को दूर करना होगा। यह कैसे होगा और इसके लिए क्या कुछ करना आवश्यक है; यही मसला दरअसल रुकावट की वजह है। दूसरी अहम बात यह कि न तो सरकार को ऐसा कुछ कहना चाहिए जिससे किसानों के बीच गुस्सा या गफलत पसरे। मसलन; कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की किसान संगठनों से बातचीत से पहले यह टिप्पणी बेवजह लगती है कि प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया की कोई ताकत दबाव और प्रभावित नहीं कर सकती है।
उसी तरह किसान संगठनों को भी यह नहीं कहना चाहिए कि सरकार को कानून वापसी की प्रक्रिया बतानी होगी। ऐसे मंतव्य या टिप्पणी से मसला जटिल ही होगा। वैसे समग्र रूप से देखा जाए तो दोनों पक्ष अपने-अपने तकरे के तीर से लैस हैं और सिर्फ दिखावे के लिए संवाद करने को इच्छुक हैं। इसकी वजह बेहद साफ है क्योंकि न तो किसान संगठन जनता की नजर में जिद्दी बनना चाहते हैं और न सरकार यह चाहती है कि कोई और उसे अक्खड़ समझे। लेकिन बात इतने से नहीं बनने वाली। बर्फ को पिघलाने के लिए सबसे जरूरी चीज है भरोसा। जब तक दोनों पक्षों का एक दूसरे पर ऐतबार नहीं होगा, तब तक इस समस्या का हल निकलना मुश्किल है। जरूरत इस बात की ज्यादा है कि सभी को अपना हठ एक किनारे रखना होगा। हो सके तो जिस बात (एमएसपी) को लेकर सबसे ज्यादा गतिरोध है; उस पर संतोषजनक पहल करनी चाहिए। एनसीआर वायु प्रदूषण प्रबंधन को लेकर आयोग के अध्यादेश 2020 पर भी समुचित चर्चा की जरूरत है। यानी हर एक विषय पर सहमति बनानी होगी।
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