वार्ता तो करनी चाहिए
देश सान संगठनों के सख्त रुख के चलते फिलहाल किसान आंदोलन का कोई समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है।
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आंदोलन के 31 दिन बीत चुके हैं और वार्ता पर गतिरोध बरकरार है। किसान संगठनों ने जिस तेवर और तल्खी के साथ सरकार से अपनी बात रखी है, उससे यह आभास हो रहा है कि आंदोलन लंबा चलेगा। केंद्र की तरफ से 20 दिसम्बर को भेजे गए बातचीत के प्रस्ताव को किसान संगठनों ने तीन दिन बाद ठुकरा दिया है और बिना लाग-लपेट के यह तर्क रखा है कि सरकार के पास जब नया एजेंडा हो तभी वार्ता के लिए आगे बढ़ें। संगठनों ने सरकार पर यह भी आरोप जड़ा कि वह आंदोलन को खराब करने और फूट डालने का काक कर रही है। सरकार के प्रस्ताव में चर्चा लायक कुछ भी नहीं बताकर किसान संगठन यही दर्शा रहे हैं कि सरकार को नये सिरे से बात आगे बढ़ानी होगी और हर हाल में तीनों कृषि बिल को निरस्त करना होगा।
अब यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह संगठनों के इस व्यवहार पर क्या रुख अपनाती है? एक बात तो तय है कि किसान संगठनों को इस कदर सख्त रवैया अपनाने से बचना चाहिए। बातचीत के प्रति जब तक किसान संगठन लचीला और संवेदनशील सोच नहीं रखेंगे, तब तक समस्या का समाधान नहीं निकल सकेगा। अड़ियल रुख से मसला जटिल और लंबा ही खिंचेगा। ऐसे में दोनों तरफ से समझदारी और व्यावहारिकता दिखाने कर दरकार है। जिद से काम बनना तो दूर बिगड़ेगा ही। हालांकि किसानों की इस हठधर्मिता की वजह उन नेताओं की बयानबाजी है, जिन्होंने आंदोलनकारियों को खालिस्तानी कहा और आंदोलन के पीछे पाकिस्तान फंडिंग की बात कही।
इस अर्नगल टिप्पणी से किसानों के बीच काफी नाराजगी है। यही बात रह-रहकर किसानों को सालती भी है। इन सबके बीच महाराष्ट्र और अन्य राज्यों के किसानों का समर्थन में आना सरकार के लिए अच्छी खबर नहीं है। सरकार को जल्द-से-जल्द ऐसे बिंदुओं और नीतियों के साथ आना होगा अगर वह वाकई किसानों के हितों के बारे में सोचती है। संवाद होते रहने चाहिए तभी बिल की जटिलताओं के साथ उसके निराकरण का मार्ग प्रशस्त होगा। ऐसा नहीं होने से सरकार के प्रति अन्नदाताओं के मन में मोदी सरकार के प्रति एक कसैलापन रहेगा, जो शायद ठीक बात नहीं होगी। देखना है, संगठनों के इस रुख पर सरकार क्या सोचती और करती है? उम्मीद की जानी चाहिए कि शुभ समाचार जल्द सुनने को मिलेंगे।
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