जोर-आजमाइश की राजनीति
नए कृषि कानूनों पर सरकार के प्रस्ताव को खारिज करने के बाद किसान संगठनों ने अपने आंदोलन की गति तेज कर दी है या यों कहें कि आंदोलन की रणनीति बदल दी है।
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अब वे सड़क जाम से अनशन-उपवास की रणनीति पर उतर आए हैं। दूसरी ओर सरकार और सत्ताधारी दल भाजपा ने भी किसानों के बीच सीधे जाने का फैसला कर लिया है। दरअसल, शुरू में ये किसान आंदोलन पर टीका-टिप्पणी करने में संयम बरत रहे थे, क्योंकि इन्हें उम्मीद थी कि किसान संगठनों से वार्ता करने से मसला सुलझ जाएगा। लेकिन किसान संगठनों द्वारा सरकारी प्रस्ताव खारिज करने के बाद उन्हें जनता के बीच जाने का विकल्प बेहतर लगा।
इनके नुमाइंदे देश भर में सभा-सम्मेलन इत्यादि कर किसानों को कृषि कानून के पक्ष में समझाने लगे हैं। यानी दोनों पक्षों के बीच जोर-आजमाइश होने लगी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन पक्ष किसानों को अपने पक्ष में करने में सफल होता है। जाहिर है इससे आंदोलनकारी किसान संगठनों पर अपने आंदोलन का औचित्य साबित करने का दबाव होगा।
अगर किसान ही उनके साथ न रहे, तो उनके आंदोलन की जमीन ही कमजोर हो जाएगी। देश के विभिन्न हिस्सों के किसानों के हितों में अंतर के आधार पर यह ठीक-ठीक अनुमान लगाना कठिन है कि जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने की इस लड़ाई में किसका पलड़ा भारी रहेगा। बहरहाल, एक लोकतांत्रिक समाज में पहली नजर में इस प्रक्रिया पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन दोनों पक्षों की रणनीति में एक फर्क है। सरकार का पक्ष रखने वाले कहीं सड़क जाम या अनशन-उपवास की रणनीति नहीं अपना रहे हैं। रणनीति का यह फर्क भी जनमत को प्रभावित करेगा। किसान संगठनों की रणनीति से ऐसे लोग भी प्रभावित हो रहे हैं, जिनका इस मसले से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
इससे किसान आंदोलन से लोगों की सहानुभति ही घटेगी। भले ही गांधीवादी पैटर्न पर बताकर कोई इसका बचाव करे, लेकिन गांधीवादी पद्धति की यह व्याख्या सर्व स्वीकार्य नहीं हो सकती। लेकिन इस आंदोलन में जिस तरह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीतिक दल शिरकत कर रहे हैं, इससे किसान आंदोलन की छवि राजनीतिक भी दिखने लगी है। यह आंदोलन किसानों की समस्याओं को लेकर हो, तो ठीक है, लेकिन अगर यह मोदी विरोध से प्रेरित दिखने लगेगा, तो इसकी धार कुंद होने लगेगी। ऐसे में किसान आंदोलन से निपटने में सरकार को ज्यादा मुश्किल नहीं आएगी।
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