पीछे हटी केरल सरकार
केरल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार (एलडीएफ) ने संशोधित पुलिस अधिनियम के व्यापक विरोध के बाद इसको ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
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राज्य सरकार के इस विवेकपूर्ण और जनपक्षीय फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। पिछले महीने केरल की सरकार ने केरल पुलिस अधिनियम 2011 को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें धारा 118 ए को शामिल किया है। इस संशोधित धारा को पुलिस की सख्तियों में असीमित विस्तार के रूप में देखा जा रहा है। इसके कारण राज्य की विपक्षी पार्टियां इसके विरोध में खुलकर सामने आ गई हैं। संशोधित अधिनियम के तहत विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों को साइबर अपराध का शिकार होने से बचाव करने के साथ ही सोशल मीडिया पर किसी भी व्यक्ति को परेशान करने, अपमानित करने या बदनाम करने को सं™ोय अपराध माना गया है। हालांकि केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने इस विवादित संशोधित अधिनियम का बचाव करते हुए कहा था कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने की लगातार अनेकों शिकायतें मिल रहीं थीं।
महिलाओं और बच्चों सहित अन्य लोगों को उसके माध्यम से निशाना बनाया जा रहा था। इसकी पृष्ठभूमि में इस अधिनियम को लाया गया है। आमतौर पर अभिव्यक्ति की आजादी पर जरा भी खंरोच लगने से वामपंथी पार्टियां और उसके कार्यकर्ता विरोध स्वरूप सड़कों पे उतर आते हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि केरल की वाममोर्चा सरकार ही अभिव्यक्ति की आजादी और इंटरनेट मीडिया की आजादी का दमन करने वाला यह काला कानून लागू करने जा रही थी।
यह संतोष का विषय है कि केरल में वाममोर्चा सरकार का दूसरा सबसे बड़ा घटक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) को इस कानून के विरोध में उतरना पड़ा। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वामपंथी विचारकों और अपने सहयोगी सीपीआई के दबाव में माकपा के केंद्रीय नेतृत्व को हस्तक्षेप करना पड़ा। केरल की यह घटना अन्य राज्य सरकारों के लिए सबक है, जो विरोध की आवाज को सहन नहीं कर पाती है। अभिव्यक्ति का अधिकार लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है और प्रत्येक नागरिक को संविधान के जरिये यह अधिकार मिला हुआ है। पिछला अनुभव बताता है कि जिस किसी भी सरकार ने इस अधिकार को कुचलने का प्रयास किया, उसे जनता ने गद्दी से उतारने में जरा भी देर नहीं की।
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