बदलाव की बयार
एक्जिट पोल के नतीजों की मानें तो बिहार में बड़ा भारी राजनीतिक उलट-फेर होने जा रहा है।
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अगर मतगणना में यही नतीजा रहता है, तो यह सिर्फ तेजस्वी यादव के करिश्मे की या महागठबंधन की विसनीयता की ही जीत नहीं होगी। यह सबसे बढ़कर कमाई, दवाई, पढ़ाई जैसे आम आदमी के वास्तविक जीवन से जुड़े मुद्दों की, चुनाव के केंद्रीय मुद्दों के रूप में वापसी की पुकारों की जीत होगी। रोजगार के मसले को महागठबंधन ने जितने दमदार तरीके से तथा गंभीरता से उठाया है, उसने तेजस्वी के प्रति युवाओं के स्वाभाविक आकषर्ण के साथ जुड़कर, बाजी पलटने वाले मुद्दे का काम किया लगता है। यह इतना स्पष्ट था कि सत्ताधारी जदयू-भाजपा गठबंधन को भी पहला वोट पड़ने से पहले ही दिखाई दे गया था।
इस मुद्दे की धार भोथरी करने के लिए भाजपा ने, महागठबंधन के ‘प्रणपत्र’ के दस लाख नौकरियां देने के वादे का जवाब, अपने चुनाव घोषणापत्र में उससे लगभग दोगुने रोजगार के वादे से देने की कोशिश की थी, लेकिन यह किसी से छुपा नहीं रहा कि यह सिर्फ रस्मअदायगी थी और सत्ताधारी गठबंधन, नौकरियां पैदा करने को भी नामुमकिन मानता है, उनके लिए प्रयत्न तक करने का भरोसा दिलाने को तैयार नहीं है। इसके चलते मुखर हुई सत्ताधारी मोच्रे से लोगों की निराशा का, उस बिहार में बहुत ज्यादा असर पड़ना ही था, जहां से चालीस लाख से ज्यादा लोग पलायन करने पर मजबूर होते हैं। कोरोना के चलते अपने गांव वापस लौटे इन मजदूरों में खासी बड़ी संख्या ऐसे मजदूरों की है, जो दोबारा उस तरह के अनुभव से नहीं गुजरना चाहते हैं और बिहार में रहकर ही काम देख रहे हैं।
इस निराशा के साथ, लॉकडाउन के चलते बिहार लौटे प्रवासी मजदूरों से लेकर दूसरी जगह पढ़ाई कर रहे मध्यवर्गीय छात्रों तक के साथ, नीतीश सरकार द्वारा बरती गई निर्मम उदासीनता से नाराजगी और जुड़ गई लगती है। उधर सत्ताधारी गठजोड़ के प्रचार में दशकों पहले के लालू-राबड़ी ‘जंगल राज’ तथा युवराज से लेकर, कश्मीर विजय, राम मंदिर, टुकड़े-टुकड़े गैंग आदि के आख्यानों पर अति-निर्भरता, उल्टी पड़ी और वास्तव में इसका सबूत ही बन गई कि उसके पास जनता के सामने रखने के लिए अपना कोई सकारात्मक कार्यक्रम ही नहीं है। मतदाताओं ने इस नकारात्मकता को ठुकराया है। इसके दूरगामी राजनीतिक संकेत हैं।
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