विभाजन का चुनाव
अमेरिका की अनोखी और वास्तव में एक हद तक विचित्र चुनाव व्यवस्था के हिसाब से भी राष्ट्रपति ट्रंप अपने डेमोक्रेट प्रतिद्वंद्वी बिडेन के हाथों हार के इतने करीब पहुंच गए हैं कि चमत्कार ही उन्हें व्हाइट हाउस में दूसरी पारी दिला सकता है।
![]() विभाजन का चुनाव |
फिर भी दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रपति पद का फैसला जल्द होता नजर नहीं आता। कम से कम तीन राज्यों में चुनावी मतगणना को रिपब्लिकन टीमों द्वारा अलग-अलग आधारों पर, लेकिन विशेष रूप से डाक से आए वोटों की गिनती के खिलाफ चुनौतियां दिए जाने के बाद, ट्रंप सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाए बिना हार स्वीकार कर लें तो ही आश्चर्य होगा। लेकिन, चार साल पहले ट्रंप का चुनाव और उससे भी बढ़कर उनका राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल जितना विभाजनकारी रहा है, उसे देखते हुए अमेरिका में चुनाव के जरिए आसानी से और कम से कम बिना किसी कटुता के सत्ता परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
अपने कार्यकाल के आखिरी और चुनावी वर्ष में तो ट्रंप ने सचेत तरीके से अपने लिए अधिकतम-ध्रुवीकरणकारी छवि गढ़ी थी। इससे उन्हें चुनावी फायदा भी हुआ लगता है और गोरे नस्ली श्रेष्ठतावादियों, वेत ग्रामीणों और मध्यवर्गीय वोटरों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के बल पर ट्रंप ने पिछली बार के अपने ही वोट को काफी बढ़ा लिया है। यह दूसरी बात है कि इसने प्रतिक्रिया में दूसरे सिरे पर और जबर्दस्त ध्रुवीकरण किया है, जिसके बल पर बिडेन ने ओबामा को अपनी जर्बदस्त जीत में मिले वोट से भी ज्यादा वोट हासिल कर लिया।
इस लिहाज से यह चुनाव, सबसे ज्यादा मतदाताओं की हिस्सेदारी के बावजूद, अमेरिकी जनतंत्र के लिए बहुत शुभ लक्षण नहीं है। मतदान की आखिरी तारीख से लेकर, नतीजे आने में हो रही देरी तक, अमेरिका के बड़े हिस्सों में जिस तरह हिंसा की आशंकाओं समेत, डर का तथा चिंता का माहौल बना हुआ है, वह ट्रंप की विभाजन की राजनीति से दुनिया के सबसे पुराने जनतंत्र को हुए नुकसान की ही गवाही देता है। बहरहाल, नतीजे के अमेरिका की अंदरूनी राजनीति पर असर के विपरीत दूसरे देशों खासकर भारत के साथ अमेरिकी रिश्तों में शायद ही कोई बदलाव आए। हां! इस रिश्ते के व्यवहार में ट्रंप की जैसी कूटनीतिक चंचलता शायद अब नहीं झेलनी पड़े। आखिरकार, चीन को घेरने की अमेरिकी रणनीति के लिए भारत की जरूरत कम नहीं होने वाली है।
Tweet![]() |