मायावती की राजनीति
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने अपने पूर्व के बयान पर सफाई देकर भले फौरी तौर पर कयासबाजी पर विराम लगाने की कोशिश की हो, मगर यह मामला उतना आसान भी नहीं है।
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कुछ दिन पहले मायावती ने कहा था कि एमएलसी चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) को हराने के लिए वह भाजपा को समर्थन कर सकती हैं। उनके इस बयान के तमाम मायने निकाले गए। जब उन्हें लगा कि इससे उनकी राजनीति को चोट पहुंचेगी तो अब उन्होंने यह कहकर पूरे बयान पर मिट्टी डालने की कोशिश की है कि, जब तक जिंदा हूं, भाजपा से मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकती। दरअसल, मायावती के इसी सियासी पैंतरेबाजी ने उन्हें भारतीय राजनीति का सबसे अविसनीय शख्स के तौर पर स्थापित भी किया है। याद कीजिए, जब 2019 के संसदीय चुनाव में 25 साल पुरानी राजनीतिक और व्यक्तिगत दुश्मनी भुलाते हुए समाजवादी पार्टी के साथ बसपा ने गठबंधन किया था।
मगर एक साल भी नहीं गुजरा कि मायावती ने खुद इस गठबंधन से अलग होने का ऐलान कर दिया। मायावती को लगता है कि सपा से गठबंधन इसलिए कारगर नहीं हो सकता कि दोनों पार्टियों की विचारधारा में भारी अंतर है। भाजपा के साथ तो फिर भी मायावती ने सरकार बनाई और चलाई भी मगर सपा के साथ इसे सहजता के साथ चलाना नितांत दुष्कर है। दूसरी अहम बात है कि मायावती को भाजपा के साथ जाने के बयान पर तत्काल यह भान हुआ कि इससे उनके साथ जो मुस्लिम वोटर हैं, वो बिदक जाएंगे और सपा या कांग्रेस का दामन थाम लेंगे।
बिहार चुनाव के साथ ही मध्य प्रदेश में हो रहे उपचुनाव में भी उनके बयान से खेल बिगड़ सकता था, शायद इसी नफा-नुकसान का आकलन करने के बाद मायावती ने सफाई देते हुए भाजपा के साथ कतई नहीं जाने या उनके साथ चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट तौर पर मानना है कि मायावती भाजपा के करीब जाने की जुगत में है और गाहे-बगाहे वह इसके संकेत भी देती रहती हैं। देखना है बसपा के इस तरह पल-पल बयान बदलने का उत्तर प्रदेश समेत हिंदी पट्टी के राज्यों में क्या बदलाव आएगा? क्या उनके समर्थक वोटर उनकी राजनीति के इस ‘अद्भुत पैंतरेबाजी’ से तारतम्य बिठा पाते हैं या छिटक कर विपक्ष की झोली में जा गिरते हैं। फिलहाल तो मायावती खुद पशोपेश में दिखती हैं।
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