दिलचस्प होता चुनाव

Last Updated 26 Oct 2020 02:27:33 AM IST

बिहार के तीन चरण के विधानसभाई चुनाव में, पहले चरण का मतदान अब नजदीक है।


दिलचस्प होता चुनाव

कोरोना महामारी के बीच हो रहे इस पहले विधानसभा चुनाव के फैसले के लिए तो 10 नवम्बर तक इंतजार करना पड़ेगा, पर एक नतीजा तो अब तक आ भी चुका है। महामारी के बावजूद, चुनाव में जनता और राजनीतिक पार्टियों की हिस्सेदारी में, कोई कमी नजर नहीं आती है। उल्टे महामारी के इस काल में चुनाव के प्रति लोगों का यह जोश, जो सभाओं में उमाड़तीं विशाल भीड़ों में देखने को मिल रहा है, स्वास्थ्य के लिहाज से परेशानियों का भी कारण बन सकता है। चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों तथा पार्टियों को, चुनाव प्रचार की पाबंदियों और नियमों की याद दिलायी है।

शुरुआत में एकतरफा माना जा रहा यह चुनाव, पहला वोट पड़ने से पहले ही एक दिलचस्प मुकाबला बन चुका है। वैसे तो चार-पांच मोच्रे मैदान में हैं, पर असली टक्कर, नीतीश कुमार की अगुआई में एनडीए और राजद के नेतृत्व में महागठबंधन के बीच ही है, जिसमें कांग्रेस और तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल हैं। चुनाव मुकाबले को दिलचस्प बनाने वाले दो कारक खास हैं। पहला, लोजपा का सत्ताधारी गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ना। इस पार्टी के नीतीश-मुक्त भाजपा सरकार के नारे और उसके भाजपा को अधिकांश सीटों पर समर्थन देने तथा जद (यू) को ही निशाना बनाने ने, सत्ताधारी मोच्रे की उलझनें बढ़ा दी हैं। दूसरा कारक, महागठबंधन की रैलियों में उमड़ रही अप्रत्याशित रूप से बढ़ी भीड़ है।

अचरज की बात नहीं है कि आर्थिक मंदी और लॉकडाउन की जो दोहरी मार पड़ी है, उसकी पृष्ठभूमि में रोजगार का मुद्दा इस चुनाव में  महत्त्वपूर्ण बन गया है। यह जनतंत्र की ताकत को ही दिखाता है कि रोजगार के मुद्दे को महागठबंधन के प्रमुखता से उठाने के बाद, भाजपा ने 10 लाख नौकरियां देने के वादे का जवाब 19 लाख रोजगार दिलाने के वादे से देना जरूरी समझा है। तमाम वादों के बावजूद, यह प्रकरण इतना तो दिखाता ही है कि जनता के हित के मुद्दों को जिंदा रखने के लिए भी, जनतांत्रिक राजनीतिक प्रतियोगिता कितनी जरूरी है। दूसरी ओर, सत्ताधारी गठबंधन का अपने पांच साल के प्रदर्शन से ज्यादा, बीस-पच्चीस साल पहले की सरकारों की कमियां गिनाकर वोट मांगना, इस राजनीतिक प्रतियोगिता की सीमा को भी दिखाता है।



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