आतंक की वापसी की धमक
शौर्य चक्र विजेता, बलविंदर सिंह की आतंकवादियों द्वारा हत्या इसकी चेतावनी है कि पंजाब में आतंकवाद दब भले गया हो, मरा नहीं है।
आतंक की वापसी की धमक |
‘कामरेड’ के नाम से ज्यादा लोकप्रिय, सिंह को गोलियों से भूनकर आतंकवादियों ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनके विरोधी, अब भी सुरक्षित नहीं हैं।
सीपीएम के कार्यकर्ता रहे सिंह, 1990 के दशक में पंजाब में आतंकवाद के खिलाफ जान जोखिम में डालकर मोर्चा लेने वालों की अगली कतारों में थे। 1993 में उन्हें शौर्यचक्र से सम्मानित करते हुए दिए गए प्रास्ति पत्र में भी इसका जिक्र है कि आतंकवादियों ने उनके परिवार का खात्मा करने के लिए 11 महीने में कम से कम 14 कोशिशें की थीं। इनमें सबसे भयानक हमले में 30 सितम्बर 1990 को खालिस्तान टाइगर फोर्स के मुखिया के नेतृत्व में करीब 200 आतंकवादियों ने भिक्खीविंड गांव में उनके पुश्तैनी घर को घेर लिया था।
पांच घंटे तक चले आतंकवादी हमले में रॉकेट लांचरों तक का इस्तेमाल किया गया, उस जगह की अप्रोच रोड को बारूदी सुरंगें बिछाकर कर काट दिया गया, लेकिन कामरेडों के साहसपूर्ण प्रतिरोध के सामने आतंकवादियों को पीछे हटना पड़ा। तीस साल बाद और बलविंदर सिंह की सुरक्षा हटाने के सरकार के फैसले का फायदा उठाकर, आतंकवादियों ने अपनी उस हार का जैसे बदला लिया है। आतंकवाद के कथित रूप से खत्म किए जाने के बाद, पिछले दो दशकों से उस जमाने के आतंकवादविरोधी योद्धाओं की सुरक्षा के मामले में, जिनमें वामपंथी तथा अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के राजनीतिक नेता खासतौर पर शामिल हैं, जिस तरह का गैर-जिम्मेदाराना सलूक किया जाता रहा है, सिंह की हत्या बेशक उसे उजागर करती है।
आतंकवाद के निशाने पर रहे लोगों की सुरक्षा के साथ इस तरह का सलूक, खुद आतंकवाद के खतरे के प्रति एक नासमझी भरी आत्मतुष्टि को दिखाता है। इस वारदात के जरिए आतंकवादियों ने यह जो संदेश दिया है कि वे अब भी अपने विरोधियों का खात्मा करने में समर्थ हैं। दरअसल, इस सीमावर्ती राज्य में और सीमा के उस पार के देश से संबंधों में तनाव रहते, आतंकवाद की गति तेज होने या धीमी पड़ने या उसके प्रसुप्तावस्था में चले जाने की बात ही की जा सकती है, पर आतंकवाद के अंत की नहीं। इसलिए सतर्कता की जरूरत है।
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