आशंकाएं दूर करें
तीनों महत्त्वपूर्ण कृषि अध्यादेशों का स्थान लेने के लिए विधेयक मंजूर किए जाने समेत तमाम सरकारी कामकाज निपटाए जाने के साथ संसद का वर्षाकालीन सत्र अपनी तय अवधि से पहले ही खत्म हो गया।
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बेशक, महामारी की चुनौती के बीच सरकारी कामकाज निपटाए जाने को सरकार की सफलता माना जा सकता है। फिर भी इस सत्र को मुद्दों के संतोषजनक तरीके से निपटाए जाने के पहलू से उतना सफल नहीं कहा जाएगा। सत्र के आखिरी दिन लगभग पूरे विपक्ष ने दोनों सदनों में कार्रवाई का बहिष्कार कर, राष्ट्रपति से मुलाकात कर उनसे संसद की मोहर के बाद भी कृषि विधेयकों को कानून बनाने के लिए अनुमोदन नहीं करने का आग्रह किया।
संसद के बाहर देश के अलग-अलग हिस्सों में मजदूरों ने मजदूरी संबंधी तीन कोडों पर संसद से मोहर लगवाए जाने के खिलाफ प्रदर्शन किए जबकि किसानों के प्रदर्शन जारी रहे। विधेयकों के पारित होने और कानून बन जाने के बाद भी सरकार के सामने मजदूरों और किसानों के अच्छे-खासे हिस्से की आशंकाएं दूर करने की चुनौती रहेगी। प्रस्तावित कानूनों के संबंध में किसानों की आशंकाओं ने खास तौर पर देश का ध्यान खींचा है। यहां तक कि सत्ताधारी एनडीए में भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल के सरकार से अलग होने जैसे बड़े राजनीतिक नतीजे भी सामने आए हैं। एक और महत्त्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार की जदयू भी, जिसे कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव का सामना करना है, इस मुद्दे पर बेचैन दिख रही है।
इसकी मांग है कि कानूनी तौर पर प्रावधान कर दिया जाए कि तय समर्थन मूल्य से कम पर किसान की पैदावार खरीदना दंडनीय होगा। चूंकि खुद प्रधानमंत्री आश्वासन दे चुके हैं कि किसानों के लिए समर्थन मूल्य की व्यवस्था और वर्तमान कृषि मंडियों को नये कृषि कानूनों से कोई चोट नहीं पहुंचेगी, जदयू का मांग मानना है कि सरकार के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए। आखिरकार, समर्थन मूल्य की सुरक्षा की गारंटी से किसानों की आशंकाएं बहुत हद तक दूर हो सकती हैं। कृषि मंत्री तोमर का कहना सही तो है कि पहले भी समर्थन मूल्य की ऐसी कानूनी गारंटी नहीं थी, लेकिन इससे आशंकाओं को दूर नहीं किया जा सकता। पहले तो ये कृषि कानून भी नहीं थे। मजदूरों-किसानों की आशंकाएं तो दूर करनी ही होंगी।
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