‘मनरेगा मैन’ को नमन
पूर्व केंद्रीय मंत्री और राजद के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह को बंधन पसंद नहीं था।
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मंत्री पद पर रहते हुए भी उन्हें इस बात का मलाल रहता था कि खुलकर बोल नहीं सकते, सवाल नहीं कर सकते, लेकिन अब वे जीवन के बंधन से ही मुक्त हो चुके हैं। दिल्ली के एम्स में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। इसके पहले वे कोरोना से संक्रमित हो गए थे। इसे विधि का विधान ही कह सकते हैं कि मौत से कुछ पहले वे अपनी उस पार्टी से भी मुक्त हो गए थे, जिसे वे बहुत प्यार करते थे। राजद में तमाम उतार-चढ़ाव आए, लेकिन रघुवंश बाबू टस से मस नहीं हुए। कोई पल्रोभन पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा को डिगा नहीं सका, लेकिन लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद पार्टी में विकसित हो रहे नये माहौल के साथ वे तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे। यही कारण है कि उन्होंने मृत्यु से तीन दिन पहले पार्टी से त्यागपत्र दे दिया था।
बिहार विधान सभा चुनाव से पहले यह इस्तीफा पार्टी के लिए एक झटका था। हताशा-निराशा ही सही, जाते-जाते भी रघुवंश बाबू राजनीति पर अपनी छाप छोड़ गए। उनकी यह राजनीति लोहिया की परंपरा में थी, जो पिछड़ा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के साथ-साथ सामंतवाद के खिलाफ भी थी। जब रघुवंश बाबू की बात आएगी, तो सबसे पहले मानस पटल पर उनकी सहज-सरल, गंवई अंदाज और बेबाक बयानी वाली छवि अंकित होगी। समाजवादी धारा से जुड़े रहे रघुवंश सिंह का गांव-समाज से प्रेम किसी से छिपा नहीं था। जब वे केंद्र में संप्रग सरकार के दौरान ग्रामीण विकास मंत्री रहे, तब मनरेगा को लागू कराने में उनकी अहम भूमिका रही थी। अंतिम सांस लेते वक्त तक उनकी जुबान पर मनरेगा कींिचंता रही थी।
इसीलिए कुछ लोग उन्हें ‘मनरेगा मैन’ भी कहते थे, हालांकि उन्होंने कभी इसका श्रेय लेने की कोशिश नहीं की। निश्चय ही गांव के गरीब-गुरबा के प्रति रघुवंश बाबू के इस अप्रतिम योगदान को भुलाया नहीं जा सकता, जो आज भी कोरोना काल में अपनी उपयोगिता साबित कर रहा है। सिद्धांत की राजनीति करने वाले रघुवंश बाबू ने राजनीति को जिस प्रकार समाज सेवा का आधार बनाया था, उसी का परिणाम था कि पार्टी की सीमाओं से परे वे विभिन्न दलों के बीच सम्मान के पात्र बन गए थे। सच्चे अथरे में आज के परिवेश में वे एक राजनीतिक संत थे। ऐसे संत को नमन।
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