एक युग का अवसान
प्रणब मुखर्जी के निधन के साथ एक बड़े कद्दावर नेता का परलोक गमन तो हुआ ही साथ ही कांग्रेस के एक स्वर्णिम युग का भी अवसान हो गया।
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कांग्रेस के पास जिसे वह अपना कह सके; अब कोई उतना बड़ा व्यक्तित्व नहीं रहा। कई बार सांसद रहने वाले, कई प्रमुख मंत्रालयों को संभालने वाले और कई बार प्रधानमंत्री पद की दावेदारी रखने वाले प्रणब दा एक विराट व्यक्तित्व के धनी थे। वे भले ही सीधे-सीधे जमीनी राजनीति से न जुड़े रहें और भले ही उनका अपने राज्य में विराट जनाधार न रहा हो, लेकिन वह अपनी बौद्धिक प्रखरता, अपने अध्ययन, परिस्थितियों की समझ तथा कुशल राजनीतिज्ञ होने के नाते सदैव केंद्रीय राजनीति के महत्त्वपूर्ण स्तंभ बने रहे। तीन-तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने वाले प्रणब दा कांग्रेस में संकटमोचक के नाम से भी जाने जाते थे।
कारण यह कि किसी भी ऐसी परिस्थिति को जिसे संभालने में अन्य कोई सक्षम दिखाई नहीं देता था; प्रणब दा ही आगे लाए जाते थे। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में उन्हें कई बार निराश भी किया और कई बार उन अवसरों से वंचित भी किया, जिनके लिए वह सर्वाधिक सक्षम व्यक्ति माने जाते थे। कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया तो भाजपा ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया। भले ही कोई राजनीतिवेत्ता इसे भाजपा की पश्चिम बंगाल में जड़ जमाने की राजनीतिक शतरंज का नाम दे, लेकिन वह अपने अप्रतिम गुणों और भारतीय राजनीति में अपने असाधारण योगदान के लिए सर्वोच्च सम्मान के सर्वथा अधिकारी थे।
दो साल पहले जब वह आरएसएस के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे और डॉ. हेडगवार को भारत माता का महान सपूत बताया था तो कांग्रेसी खेमे में उनकी खासी आलोचना हुई थी, जबकि वस्तुस्थिति यह थी कि प्रणब दा ने ऐसा करके भविष्य के लिए एक पुल बनाने की कोशिश की थी, जिसमें धुर विरोधी विचारों वाले राजनीतिक दलों के बीच भी वैचारिक नहीं तो कम-से-कम सामाजिक सौहार्द बना रहे।
एक तरह से उन्होंने राजनीतिक विरोध को व्यक्तिगत अथवा सांस्कृतिक विरोध में बदल देने की भारतीय राजनीति की परंपरा को तोड़ने की कोशिश की थी। इस अर्थ में प्रणब दा को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि भारत के राजनीतिक दल अपनी राजनीति को व्यैक्तिक शत्रुता और सामाजिक बहिष्कार के दलदल से निकालकर एक स्वस्थ राजनीतिक वातावरण तैयार करे। प्रणब दा के महान व्यक्तित्व को विनम्र श्रद्धांजलि।
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