प्रवासी मजदूरों की दशा
वैसे तो प्रवासी मजदूरों के दुख, दर्द और दुारियों की कोई सीमा नहीं है, मगर कोरोना महामारी के बाद देशभर में पूर्ण बंदी के दौरान इनकी समस्याएं खुलकर सामने आ गई।
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देश-विदेश में ज्यादातर लोगों ने इनकी तकलीफों को देखा। मगर इन्हें भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया। यही वजह है कि सरकार से उम्मीद हार चुके मजदूर और उनके परिवारवाले पैदल ही हजारों किलोमीटर की दूरी नाप गए। इन्हीं सब समस्याओं के मद्देनजर बंबई हाईकोर्ट ने दो दिन पूर्व प्रवासी संकट पर चिंता जताते हुए कहा कि इस महामारी ने यह दिखा दिया कि संवैधानिक गारंटी के बावजूद सभी को समान अवसर उपलब्ध कराने वाला समाज अब भी ‘स्वप्न मात्र’ है।
मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ए ए सैयद की पीठ ने यह भी कहा कि अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य देखभाल के मौजूदा हालात को देखते हुए ‘कोई भी निकट भविष्य में एक निष्पक्ष समाज के बारे में मुश्किल से ही सोच सकता है।’ हाईकोर्ट की इस टिप्पणी को समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर लगाने की जरूरत नहीं है।
लॉकडाउन में इन मजदूरों ने जो भोगा है, वह देश के लिए भी बेहद शर्मिदगी की बात है। कैसे सरकार के रहते हुए हजारों-लाखों की संख्या में मजदूर, उनकी घरवाली, मासूम बच्चे पैदल या किसी तरह खुद को पुलिस की नजरों से बचाकर अपने गांव और शहर जाने को निकल पड़े थे। उनकी दारूण दशा को हर किसी ने देखा, मगर मदद करने को आगे आए बस गिनती के स्वयंसेवी संगठन, कुछ गुमनाम और कुछ ख्यातिलब्ध लोग। सरकार तो पूरे सीन से गायब ही रही। ऐसा नहीं है कि इन मजदूरों को इसी समय परेशानी उठानी पड़ी है।
इन्हें प्राथमिक स्तर की सुविधाएं तो पहले भी मयस्सर नहीं होती थी। हां, इस बार सरकार के दावे बेहद कम वक्त में बेपर्दा हो गए। लिहाजा सरकार को प्रवासी मजदूरों की समस्याओं से निपटने के लिए ठोस पहल करनी होगी। कई सारे स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश में करीब 12 करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर हैं। चूंकि ये कई राज्यों में बिखरे हुए हैं, इस कारण से इनके बारे में स्पष्ट तरीके से जानकारी किसी भी सरकार के पास मौजूद नहीं है। फिर भी यह एक अच्छा सबक सीखने और राज्य की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को मजबूत करने का वक्त है।
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