हादसे दर हादसे
बड़े बड़े शहरों और महानगरों में लॉकडाउन के कारण बेरोजगार हुए मजदूरों का अपने गांव की ओर पलायन हर रोज अत्यधिक दुखद और मार्मिक कहानियां लेकर सामने आ रहा है।
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पिछले दिनों तो यही दृश्य सामने आ रहे थे कि कैसे प्रवासी मजदूर बच्चों और महिलाओं के साथ सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करने पैदल ही निकल पड़े हैं। लेकिन अब हर रोज जो दुर्घटनाओं की कहानियां सामने आ रहीं हैं, वे विचलित करने वाली हैं। भूख और आर्थिक तंगी से बेहाल मजदूरों का दुर्घटनाओं से होने वाली मौत का सिलसिला पिछली 8 मई को शुरू हुआ था। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में ट्रेन की पटरी पर सो रहे 16 प्रवासी मजदूरों की मालगाड़ी से कटकर मौत हो गई थी।
तब से अब तक देश के विभिन्न हिस्सों में करीब 70 से अधिक मजदूरों की सड़क हादसे में जान जा चुकी है। बीते शनिवार को उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में ट्रक और एक डीसीएम की टक्कर में 25 प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई। उन दोनों वाहनों में ज्यादातर पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड के मजदूर सवार थे। डीसीएम में दिल्ली और गाजियाबाद के मजदूर सवार थे, जो मध्य प्रदेश जा रहे थे। ट्रक राजस्थान से चूने की बोरियां लेकर प. बंगाल जा रहा था। इसमें सवार मजदूर प. बंगाल, बिहार और झारखंड जा रहे थे।
मजदूरों के इस सामूहिक अनवरत पलायन में सरकार और प्रशासन तंत्र की भारी अदूरदर्शिता दिखाई दे रही है। लॉकडाउन से पहले सरकार की ओर से यह घोषणा होनी चाहिए थी कि जिस किसी को जहां जाना हो, वह चला जाए। प्रवासी मजदूरों को अपने गंतव्य स्थान तक जाने का प्रबंध केंद्र और राज्य सरकारें करतीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सरकार की इस अदूरदर्शिता के कारण सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का घोर उल्लंघन हुआ और आज भी हो रहा है। सच यह है कि लॉकडाउन का जितना फायदा मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिल पाया।
मजदूरों के इस सामूहिक पलायन से यही संकेत मिलता है कि उनको कोरोना वायरस जैसी जानलेवा महामारी से उतना भय और दहशत नहीं है, जितना कि लॉकडाउन से पैदा हुई असुरक्षा के भाव से है। वास्तविकता यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच ठीक तरह से समन्वय न होने के कारण भी मजदूरों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है। अत: सरकार को इनके गंतव्यों तक सुरक्षित पहुंचाने का तत्काल प्रबंध करना चाहिए। ताकि उनके साथ अब कोई और हादसा न होने पाए।
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