आर्थिक नुकसान
लॉकडाउन के आर्थिक प्रभावों पर अनेक अध्ययन आ रहे हैं और सबमें भारत को होने वाली क्षति का आकलन है।
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सेंट्रम इंस्टीट्यूशनल रिसर्च ने 21 दिनों के लॉक-डाउन का अध्ययन करते हुए निष्कर्ष दिया है कि इसकी कीमत करीब आठ लाख करोड़ से चुकानी पड़ेगी। लॉक-डाउन का मतलब 70 प्रतिशत से ज्यादा आर्थिक गतिविधियों का ठप हो जाना है। कृषि, खनन, उपयोगी सेवाएं, कुछ वित्तीय सेवाएं, सूचना तकनीक सेवाएं आदि को ही काम करने की अनुमति है।
इसके पहले एक्यूट रेंटिंग्स एंड रिसर्च लिमिटेड ने अपने आकलन में कहा था कि 21 दिन के लॉक-डाउन में भारत की अर्थव्यवस्था को प्रतिदिन करीब 4.64 अरब डॉलर यानी करीब 35 हजार करोड़ रु पये की क्षति हो रही है। तो कुल मिलाकर इसके अनुसार 21 दिनों में सकल घरेलू उत्पाद को 98 अरब डॉलर यानी करीब 7.5 करोड़ रु पये का नुकसान होगा। इस तरह दो संस्थाओं का आकलन समान है। क्षति से तो कोई इनकार कर ही नहीं सकता। हां, यह कितनी होगी इसका निश्चयात्मक आकलन जरा कठिन है।
भारत के लिए दुर्भाग्य यह रहा कि कोरोना प्रकोप ऐसे समय आया जब अर्थव्यवस्था को सुस्ती से निकालने के राजकोषीय एवं मौद्रिक उपायों का सकारात्मक असर दिखने लगा था। जाहिर है, अब वह स्थिति दूर चली गई है। चूंकि लॉक-डाउन 19 दिन और बढ़ गया है इसलिए नुकसान की राशि करीब इसके दोगुनी होनी चाहिए। अगर तीन मई को लॉक-डाउन खत्म हो जाए या उसे आंशिक रूप से खत्म किया जाए तब भी सोशल डिस्टेंसिंग सहित बचाव के कदमों से मुंह मोड़ लेना कठिन होगा।
वास्तव में अर्थव्यवस्था की गति को सामान्य पटरी पर लाने में तब भी काफी समय लगेगा। वैसे जब आर्थिक गतिविधियां ठप हों तो कर राजस्व भी नहीं आ सकता। दूसरी ओर ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य सुविधाओं से लेकर सामाजिक कल्याण पर खर्च करना पड़ रहा है। तो राजकोष की स्थिति के चरमराने का भी खतरा है। जब आय बिल्कुल कम होगी और खर्च सामान्य से ज्यादा तो फिर पूरी अर्थव्यवस्था भारी घाटे का शिकार होगी। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि लॉक-डाउन के कारण काफी खर्च भी घटे हैं। सामान्य आयात नहीं हो रहा। आवागमन पर होने वाले खर्च भी नहीं हो रहे। इसलिए यह मान लेना भी उचित नहीं होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था शून्य में चली जाएगी।
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