रिहाई के निहितार्थ
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला की रिहाई पर अगर कुछ हलकों में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है तो यह अकारण नहीं है।
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कारण, नरेन्द्र मोदी सरकार ने उनके रिहा किए जाने के पहले बयान तक नहीं दिया था। हालांकि जन सुरक्षा कानून या पीएसए के तहत गिरफ्तारी के बाद अगर तीन महीने में उसकी अवधि नहीं बढ़ाई गई तो उसका संकेत यही था कि सरकार के अंदर उनको रिहा करने को लेकर विचार चल रहा है। वैसे इसके पहले भी काफी लोग रिहा किए जा चुके हैं। यह माना जा सकता है कि सरकार फारुख को रिहा कर वहां की स्थिति का आकलन करना चाहती है।
आज न कल वहां राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की जानी है और यह तभी हो सकता है जब राजनीतिक दलों की भागीदारी हो। फारुख की रिहाई के बावजूद कश्मीर में किसी तरह का प्रदर्शन न होना साबित करता है कि 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने से लेकर अभी तक काफी कुछ बदल चुका है। सामान्य स्थिति में यदि इतना बड़ा नेता रिहा हो तो उसके स्वागत या समर्थन में पार्टी के लोगों का जमावड़ा होता। वह नहीं हुआ तो इसके कारण स्पष्ट हैं। रिहा होने के पूर्व प्रशासन एवं फारुख के बीच कुछ संवाद हुआ है। फारुख ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया जो सरकार के विरु द्ध जाता हो।
उन्होंने यह कहा कि उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की रिहाई के बिना उनकी आजादी अधूरी है। इसके साथ उन्होंने यह साफ किया कि राजनीति पर अभी कोई बात नहीं करेंगे। यह देखना होगा कि इसके बाद सरकार उमर और मुफ्ती को कब रिहा करती है। केंद्र की रणनीति में साफ झलक रहा है कि वह वहां की परंपरागत राजनीति में बदलाव चाहती है। लंबे समय से वहां की राजनीति पर दो परिवारों का वर्चस्व रहा है। यह जम्मू- कश्मीर के लिए हितकर साबित नहीं हुआ और इनके कारण कोई तीसरी प्रभावी राजनीतिक शक्ति वहां खड़ी नहीं हो पाई।
कांग्रेस इनके वर्चस्व के नीचे दब गई और भाजपा जम्मू तथा लद्दाख तक सीमित रही। प्रदेश की नई संरचना में तीसरी शक्ति के उदय के लिए अंदर से काफी प्रयास हुए और पीडीपी में एक समय महबूबा के विस्त साथी अल्ताफ ने नई पार्टी बनाई है। तो देखना है इसका कितना असर होता है। किंतु फारुख की रिहाई का सीधा संकेत है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस अपने पहले के आक्रामक बयानों की तरह तत्काल कोई कदम फिलहाल तो नहीं उठाने जा रही।
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