केजरीवाल कथा
यकीनन बतौर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का यह तीसरा कार्यकाल है, लेकिन पहला कार्यकाल महज 49 दिनों का बेहद तूफानी था।
केजरीवाल कथा |
उस शुरुआती कार्यकाल के मुकाबले केजरीवाल ही नहीं, आम आदमी पार्टी की भाषा, बोली, तेवर सब बदले हुए हैं। दूसरे या कहिए पहले मुकम्मल पांच साल के कार्यकाल में भी शुरुआती दो-तीन साल बेहद उथल-पुथल भरे गुजरे और बोली में तीखापन तो था, मगर उसूलों पर खरापन गायब हो चला था।
उन्हें 2015 में चुनाव जीतने के फौरन बाद कुछ खास उसूलों के आग्रही साथियों को किनारे करना पड़ा। बाद के दौर में बोली का तीखापन भी छोड़ना पड़ा और उसी मैदान में मुकाबला करना पड़ा, जिसमें कांग्रेस या भाजपा जैसी मुख्यधारा की पार्टियां पारंगत रही हैं। यानी उसूलों की वह राजनीति या देश की दिशा बदलने वाली राजनीति का दावा आज भी केजरीवाल और आप भले करे लेकिन शायद उस मोर्चे को पार्टी छोड़ चुकी है। फिर भी लगातार दूसरी बार अप्रत्याशित बहुमत से जीत मुख्यधारा की दूसरी पार्टियों से कुछ अलग करती है।
शायद यही बात दर्शाने के लिए केजरीवाल के तीसरे शपथ ग्रहण समारोह में बाकी पार्टियों के नेताओं को नहीं बुलाया गया। बेशक, यह अलग-सी छवि पिछले पांच साल में दिल्ली सरकार के कामकाज से पैदा हुई है। उसने अपना एकदम शुरुआती वादा बिजली, पानी सस्ते में मुहैया कराने का बहुत हद तक निभाया ही, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के सियासी और नीतिगत पहलुओं को भी बदल दिया। सस्ती बिजली का वादा सिर्फ सब्सिडी के भरोसे नहीं रहा, बल्कि बिजली कंपनियों की मांग के बावजूद दाम बढ़ाने की इजाजत नहीं दी गई।
इसी तरह पानी भी दिल्ली के दूर-दूर के इलाकों तक पहुंचने लगा और टैंकर माफिया की हनक कम हुई। इसी तरह जब शिक्षा और स्वास्थ्य में निजीकरण पर जोर दिया जा रहा था, तब आप सरकार ने सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में सुधार की कोशिशें कीं जिसके नतीजे भी दिखने लगे। इससे लोगों के जीवन में फर्क आया और वे इस बार भाजपा के ध्रुवीकरण की कोशिशों के अलावा इस बात में भी नहीं फंसे कि खैरात बांटकर कब तक चलेगा? तो क्या दिल्ली के जनादेश को बाकी पार्टियां समझेंगी और देश में सरकारी उपक्रमों को मजबूती देने की दिशा में बढेंगी? इसके अलावा आप भी जिस तरह उसूलों से हटती जा रही है, उसमें यह देखने लायक भी होगा कि आगे वह किस रास्ते चलती है?
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