शहीदों पर राजनीति

Last Updated 17 Feb 2020 12:26:54 AM IST

पुलवामा हमले की बरसी पर जिस तरह की राजनीति हुई वह दुर्भाग्यपूर्ण है। जम्मू-कश्मीर में सीमा पार आतंकवाद की साजिश में एक साथ 40 सीआरपीएफ के जवानों की शहादत ने पूरे देश को हिला दिया था।


शहीदों पर राजनीति

लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि मोदी सरकार ने उसका सही प्रतिकार नहीं किया। उस घटना से ही आतंकवाद विरोधी लड़ाई में भारत के चरित्र में आमूल परिवर्तन आया। घटना के 24 घंटे के अंदर 100 कंपनियां केंद्रीय सशस्त्र पुलिस को उतारा गया, जमाएत-ए-इस्लामी के नेताओं को गिरफ्तार किया गया, 150 के आसपास अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापसी तथा उनके खिलाफ कार्रवाई की शुरु आत हुई।

100 घंटे के अंदर हमले के साजिशकर्ता मुठभेड़ में मार डाले गए। सबसे बढ़कर ठीक 12 वें दिन भारत की वायुसेना ने बिना युद्ध की अवस्था में सीमा पार कर बमबारी की। इतनी साहसी कार्रवाई की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। दुनिया ने भी माना कि अब यह बदला हुआ भारत है। जाहिर है, जिस तरह विपक्षी नेताओं ने शहीदों को जाति में बांटने की कोशिश की वह निंदनीय है। विपक्ष के नाते सरकार की आलोचना समझ में आती है लेकिन शहीदों को जाति में बांटना खतरनाक राजनीति है। इसी तरह यह सवाल उठाना कि उसका लाभ किसे मिलना भी नासमझी है।

यह शहादत को राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि से देखना है। तीसरा सवाल उसकी जांच पर उठाई जा रही है। सुरक्षा मामलों में बहुत सारी बातें सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं। जिस गाड़ी में विस्फोट हुआ उसका पता चला, उसके खरीदार भी पकड़ में आए, लेकिन कुल मिलाकर साफ हुआ कि इसके पीछे पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का प्रमुख मसूद अजहर था।

जब यह बात दुनिया ने मान ली और भारत के सबूतों से सहमत होकर ही मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने में सफलता मिली तो फिर भारत के अंदर यह आरोप लगाना कि सरकार ने ही हमला करवा दिया बिल्कुल अस्वीकार्य है। इससे तो पाकिस्तान का पक्ष मजबूत होगा। आतंकवादी कश्मीर का था, लेकिन उसे आतंकवादी बनाने वाले, आत्मघाती हमला करने का प्रशिक्षण तथा साजिश रचने वाले पाकिस्तानी थे। यह चिंता का विषय है कि इतना सब कुछ सामने आने के बावजूद हमारे दिशाहीन राजनेता इस तरह की घटिया राजनीति कर रहे हैं।



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