निष्पक्षता की खातिर
किसी भी सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) की भूमिका को लेकर सर्वोच्च अदालत ने बेहद महत्त्वपूर्ण बात कही है।
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मंगलवार को अदालत ने स्पीकर के अधिकारों से जुड़ी टिप्पणी मणिपुर के वन मंत्री की अयोग्यता के मुद्दे पर दिए फैसले में की है। अदालत ने कहा कि विधायकों और सांसदों को अयोग्य ठहराने संबंधी सदन के स्पीकर की शक्तियां पर दोबारा विचार करने की जरूरत है।
साफ तौर पर अदालत का आशय है कि अध्यक्ष से पूर्ण निष्पक्षता की अपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि वह भी किसी राजनीतिक दल का सदस्य होता है। ऐसे में सांसद या विधायक को अयोग्य घोषित करने का अंतिम अधिकार अगर स्पीकर के पास होता है तो इसके दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाती है। हर कोण से मामले को देखने और समझने के बाद अदालत ने कुछ अहम सुझाव भी दिए, जिससे सदन की विसनीयता कहीं से भी दरके नहीं।
मसलन; अदालत ने केंद्र सरकार से यह विचार करने को कहा है कि क्या विधायकों और सांसदों की अयोग्यता पर फैसले का अधिकार स्पीकर के पास रहे या इसके लिए रिटार्यड जजों के ट्रिब्यूनल जैसा स्वतंत्र निकाय गठित हो। स्वाभाविक तौर पर भारतीय गणतंत्र की भूमिका को अक्षुण्ण बनाए रखने में सदन के अध्यक्षों की महती भूमिका है परंतु इस पद में अंतर्निहित विरोधाभासों ने हमें लज्जित किया है।
पूर्व में ऐसे कई मामले देखे गए, जिसमें स्पीकर की भूमिका पर गंभीर सवाल उठे। यहां तक कि मामला अदालत की चौखट तक पहुंच गया। लिहाजा इस मसले पर कई वर्षो से मंथन हो रहा था कि स्पीकर के पद की विसनीयता को कैसे पवित्र और निष्पक्ष रखा जाए। चूंकि भारतीय प्रणाली में अध्यक्ष का पद हितों के टकराव से जुड़ा हुआ है और इसके दुरुपयोग की संभावना ज्यादा है।
वैसे इस मामले में हमें आयरलैंड से सबक लेने की जरूरत है, जिसकी संसदीय व्यवस्था हमारे जैसी ही है। वहां स्पीकर का पद ऐसे शख्स को दिया जाता है, जिसने लंबे वक्त तक राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को तिलांजलि देकर भरोसा हासिल किया है। या फिर सीधे-सीधे स्पीकर के पद पर किसी अराजनीतिक व्यक्ति को बिठाना होगा, जो पक्षपात से कोसों दूर रहा है। जो भी हो, इस मामले में बेहद सजगता के साथ केंद्र को आगे बढ़ना होगा। अगर ऐसा हो पाया तो यह वाकई जनतंत्र के लिए बेहतर होगा।
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