जेपी की चुनौती
पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के निर्विरोध नये राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिये गए।
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सीधे अथरे में कह सकते हैं कि यह पार्टी का आंतरिक मामला है, लेकिन केंद्र और अनेक राज्यों में शासन करने वाली पार्टी के शीर्ष संगठनात्मक नेतृत्व में जब परिवर्तन होता है तो उससे देश की राजनीति भी प्रभावित होती है। इस अर्थ में अमित शाह की जगह जेपी नड्डा आना काफी महत्त्व रखता है। 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा की भारी बहुमत से जीत के बाद अमित शाह गृह मंत्री बनाए गए उसी समय नड्डा को पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। भाजपा की आंतरिक राजनीति को जानने-समझने वालों को अच्छी तरह से मालूम था कि इस पार्टी में ‘एक व्यक्ति एक पद’ की परंपरा का कड़ाई से पालन किया जाता है। पार्टी का संविधान भी यही कहता है। इसलिए नड्डा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना सुनिश्चित था।
उनका निर्विरोध चुना जाना बताता है कि मोदी, शाह और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं का उन पर भरोसा था। इनके नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी संस्तुति थी। लेकिन भारत के राजनीतिक दलों में पार्टी अध्यक्ष के निर्विरोध निर्वाचन की प्रक्रिया का एक अन्य पहलू भी है, जिसे रेखांकित किया जाना आवश्यक है। प्राय: सभी राजनीतिक दलों में अनुशासन के नाम पर आंतरिक लोकतंत्र मृतप्राय: है। ऊपर से जो नाम तय होता है, उस पर सबकी मुहर लगती है। जाहिर है कि नड्डा के नाम पर भी ऐसा ही हुआ होगा। हालांकि जेपी नड्डा को संगठन चलाने का लंबा अनुभव है। उन्होंने हिमाचल प्रदेश में नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर संगठन का कामकाज चलाया है।
लंबे अनुभव के बावजूद उनके सामने अनगिनत चुनौतियां हैं। उनकी पहली चुनौती दिल्ली के चुनाव में भाजपा को सत्ता में वापस लाना है, जहां वर्षो से पार्टी सत्ता से बाहर है। उनकी दूसरी चुनौती बिहार है, जहां इसी साल चुनाव होने वाला है। अब देखना है कि बिहार में वह पार्टी को सत्ता में वापस ला पाते हैं, या नहीं?
इसी तरह उनकी असली परीक्षा उत्तर प्रदेश और बंगाल में होगी। सहयोगी दलों के साथ भाजपा के रिश्तों को सहज बनाना भी उनके लिए एक प्रमुख चुनौती साबित होने वाली है। इन दिनों सीएए और एनआरसी को लेकर भाजपा के सहयोगी दल काफी असहज महसूस कर रहे हैं। भाजपा इन मुद्दों को लेकर काफी आक्रामक है। क्या जेपी नड्डा सहयोगी दलों के साथ बेहतर संबंध बनाए रखने के लिए नरम रुख अपनाएंगे?
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