न्याय का भरोसा
केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में न्यायमूर्ति धींगरा की अध्यक्षता वाली एसआइटी की सिफारिशें स्वीकार कर कार्रवाई करने का बयान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
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इसके बाद भारी संख्या में साढ़े तीन दशक पूर्व एकपक्षीय हिंसा के मामले में सलिप्त व्यक्तियों, तत्कालीन पुलिस और न्यायिक अधिकारियों तक पर मुकदमा चलने वाला है।
वैसे भी मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही एक एसआईटी का गठन किया था जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एसआईटी में मिल गया। उसी कारण नये सिरे से मुकदमा आरंभ हुआ तथा काफी लोगों को सजा मिलना सुनिश्चित हुआ है। चूंकि न्यायमूर्ति धींगरा समिति ने 186 मामलों का उल्लेख किया है इसलिए उन सबमें मुकदमा चलेगा। ये मामले वे हैं, जो पहले बंद किए जा चुके थे। एक साथ इतने बंद मामलों की जांच का यह पहला वाकया है। साथ ही पहली बार पुलिस के साथ निचली अदालतों की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा किया गया है।
उदाहरण के लिए इनमें पांच मामले वह हैं जिनमें एक और दो नवम्बर, 1984 को नांगलोई, किशनगंज, दयाबस्ती, शहादरा व तुगलकाबाद रेलवे स्टेशनों में सिख यात्रियों को ट्रेनों से खींच-खींचकर कत्ल किया था। लेकिन पुलिस ने मौके से किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया। मारे गए लोगों के कटे-जले शव प्लेटफार्मो और रेल पटिरयों पर पाए गए थे। केंद्र सरकार की मांग पर सर्वोच्च न्यायालय ने एसआइटी को आदेश दे दिया है कि वह मामले से जुड़ा सारा रिकार्ड गृह मंत्रालय को वापस करे। मुकदमा न चले इसलिए एक साथ कई-कई मामलों को नत्थी करके न्यायालय में पेश किया गया और इसमें सुनवाई आगे बढ़ना मुश्किल था।
यहां न्यायालय को पुलिस को नियमानुसार अधिकतम पांच मामले डालने का आदेश देना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। परिणामस्वरूप कभी कोई आरोपी नहीं आता तो कभी दूसरा। यह केवल हत्यारों और लुटेरों को बचाने की साजिश थी, जिसमें प्रशासन सफल रहा। जाहिर है, जब तक उस प्रक्रिया को नये सिरे से शुरू नहीं किया जाएगा 1984 में सिखों के नरसंहार में न्याय नहीं हो सकता है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का कत्लेआम हमारी पूरी व्यवस्था पर ऐसा धब्बा है जिसको न्याय से ही धोया जा सकता है। उम्मीद करनी चाहिए कि पांच वर्षो में जिस दिशा में न्यायिक कार्रवाई बढ़ी है, धींगरा रिपोर्ट के बाद उसमें और वृद्धि होगी।
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