अब देर न हो
समूचे देश को झकझोर देने वाले निर्भया की सामूहिक दुष्कर्म मामले का पटाक्षेप करीब है। इस मामले के चारों दोषियों को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने फांसी की तारीख मुकर्रर कर दी है।
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फांसी की सजा देने या न देने को लेकर देश और दुनिया में काफी दिनों से बहस चलती रही है। यह ठीक है कि इस मसले पर संवाद होना चाहिए, लेकिन निर्भया सामूहिक दुष्कर्म का मामला जितना जघन्यतम था उसे लेकर पूरा देश आंदोलित होकर पीड़िता के पक्ष में खड़ा हो गया था। जाहिर है इस जघन्यतम अपराध के लिए चारों दोषियों को फांसी की सजा मिलनी ही चाहिए। न्यायपालिका इस तरह के आपराधिक मामलों में जो फैसला सुनाती है उसमें एक सबक भी निहित रहता है।
सबक इसलिए भी होता है कि समाज में इस तरह के अपराध की पुनरावृत्ति न होने पाए। आमतौर पर ऐसा होता नहीं है फिर भी न्याय की अवधारणा में दंड और सबक जुड़वें भाई की तरह होते हैं। निर्भया के साथ निर्ममता से दुष्कर्म और उसके बाद उसकी हत्या करने वाले चारों दोषी अभी अपने बचाव के लिए सुप्रीम कोर्ट में सुधारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन) और दया याचिका राष्ट्रपति महोदय के समक्ष दाखिल कर सकते हैं। राष्ट्रपति के पास संविधानसम्मत विवेकाधिकार है और उन्हें इन चारों दोषियों को क्षमा करने का अधिकार प्राप्त है।
लेकिन निर्भया के मामले में जिस तरह पूरा देश आंदोलित हुआ था और आज भी है, उसे देखते हुए हम उम्मीद करते हैं कि राष्ट्रपति इनकी दया याचिका को खारिज करके निचली अदालत के फैसले को बहाल रखेंगे। अदालत के फैसले पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए निर्भया की मां ने कहा कि मेरी बेटी को सात साल के इंतजार के बाद आखिरकार इंसाफ मिल गया। उसकी आत्मा को अब शांति मिलेगी। हम कह सकते हैं कि देर से ही सही लेकिन निर्भया को इंसाफ तो मिला।
बेहतर यह होगा कि महिलाओं के खिलाफ दुष्कर्म, हत्या, एसिड अटैक जैसे जघन्य आपराधिक मामलों के लिए अलग से विशेष अदालतें गठित किये जाएं। साथ ही उपयुक्त मामलों की त्वरित सुनवाई करते हुए अधिक-से-अधिक छह महीने में फैसले किए जाएं। इन अदालतों में महिला वकीलों और महिला जजों का बहुमत हो, जो महिला होने के नाते उनका दर्द ठीक तरह से समझ सकेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस पर गौर फरमाएगी।
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