पीएफआई पर प्रतिबंध
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) को प्रतिबंधित करने की सिफारिश के बाद केंद्र सरकार क्या करती है, यह देखना होगा।
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हालांकि प्रदेश सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदशर्न में जगह-जगह हुई हिंसा, आगजनी, उपद्रव आदि में पीएफआई की संलिप्तता के जो सबूत दिए हैं, वे काफी ठोस हैं। पूरे प्रदेश में हुई गिरफ्तारियों में पीएफआई के लोगों की संख्या दर्जनभर से ज्यादा है। उत्तर प्रदेश पुलिस का कहना है कि विरोध प्रदशर्न कुछ तो तात्कालिक थे लेकिन उपद्रव, हिंसा व आगजनी पूर्व नियोजित थी। केवल पश्चिम उत्तर प्रदेश ही नहीं, लखनऊ में भी हिंसा के पीछे पुलिस पीएफआई की ही भूमिका के सबूत पेश कर रही है।
पीएफआई के संदिग्धों के पकड़ में आने के बाद पुलिस की छापेमारी में जिस तरह के दस्तावेज व सामग्रियां बरामद हुई तथा गिरफ्तार सदस्यों ने जो कुछ बताया उससे पुलिस निष्कर्ष पर पहुंची है कि यह संगठन वास्तव में सिमी का ही बदला हुआ नाम है। यह सच है तो फिर सीमी की तरह इस पर प्रतिबंध स्वाभाविक हो जाता है। सिमी पर प्रतिबंध लगाते समय 2001 में तत्कालीन वाजपेई सरकार ने इतने पुख्ता आधार बनाए थे कि उच्चतम न्यायालय ने भी उस पर अपनी मोहर लगा दी।
वस्तुत: किसी संगठन को प्रतिबंधित करने के लिए ठोस आधार होना आवश्यक है। नहीं तो न्यायालय में वह टिक नहीं पाएगा। पीएफआई पर 2018 में झारखंड में प्रतिबंध लगाया गया था लेकिन उच्च न्यायालय ने उसे निरस्त कर दिया। कारण, प्रतिबंध के लायक पुख्ता सबूत नहीं थे। जाहिर है, केंद्रीय गृह मंत्रालय अब उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों से मिले सबूतों की आवश्यक व्यापक कानूनी समीक्षा के बाद ही कोई कदम उठाएगा। इस संगठन का अगर वाकई आतंकवादी गतिविधियों में हाथ है तो यह प्रतिबंधित होना ही चाहिए।
ऐसे संगठनों को स्वतंत्र गतिविधियां चलाने की छूट देश के लिए घातक होगी। लेकिन गतिविधियां संदिग्ध होते हुए भी न्यायलय में टिकने लायक पुख्ता सबूत नहीं है तो फिर तत्काल प्रतिबंध से बचते हुए उसके खिलाफ अन्य तरीकों की कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में इनके सदस्यों के खिलाफ हिंसा में संलिप्तता का मुकदमा चलाया जाना ही श्रेयस्कर होगा। जब सबूत पुख्ता हो जाएं तो प्रतिबंध लगाना चाहिए ताकि न्यायिक समीक्षा में उसके निरस्त होने की संभावना न रहे।
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