कांग्रेस की राजनीति
हर साल 28 दिसम्बर को कांग्रेस स्थापना दिवस मनाया जाता है, लेकिन इस साल खास सिर्फ इसलिए नहीं है कि सबसे पुरानी पार्टी 135 साल की हो गई है।
कांग्रेस की राजनीति |
खास है, उसे मिल रही चुनौतियां और लगातार दूसरी बार लोक सभा चुनाव में पराजय के बाद अपनी जमीन बचाने या उसे पाने की जद्दोजहद। मौजूदा दौर में देश भर में चल रहे आंदोलनों, आर्थिक और अन्य स्थितियों से उपजे आक्रोश में कांग्रेस के पास एक और मौका है। जाहिर है, जमीन बचाने या वापस पाने के लिए सिर्फ सुर्खियां बटोरने वाले बयानों से काम नहीं चलेगा, बल्कि जमीन पर वह विकल्प तैयार करना होगा, जिसे देश में लोग विसनीय मानें।
बेशक, कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी और प्रियंका भी अपने बयानों और कार्यक्रमों से मौजूदा माहौल में सत्ताधारियों के अफसाने के बरक्स खड़ा होने की कोशिश कर रहे हैं। खासकर राहुल गांधी तो तीखे बयानों के जरिए भी समानांतर विमर्श खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनके ये तीखे तेवर पिछले पांच साल में उन्हें जनता के बीच वह लोकप्रियता या साख नहीं दिला पाए हैं। वैसे, कांग्रेस का इतिहास ही ठीक से देखें तो अंदाजा लग सकता है कि राजनैतिक जमीन कैसे तैयार की जाती है? 135 साल पहले जिस कांग्रेस की स्थापना हुई, उसके लक्ष्य स्पष्ट और दो-टूक थे।
उसने मौजूदा अंग्रेज सरकार से कुछ सीमित अधिकारों और कुछ रियायतों की मांग रखना ही अपना लक्ष्य तय किया था। यह लक्ष्य धीरे-धीरे व्यापक होता गया और महात्मा गांधी के राजनैतिक परिदृश्य पर उतरने के बाद तो कांग्रेस देश की इकलौती आवाज बन गई। मगर इसके लिए गांधी ने तमाम तरह की आवाजों को कांग्रेस की छतरी के नीचे जगह दी और उनके हर कार्यक्रम को कांग्रेस के कार्यक्रम में तब्दील कर दिया।
किंतु आजादी के बाद के दशकों में जैसे-जैसे उससे बाकी आवाजें और जमातें अलग होती गई, वह एकांगी होकर सत्ता की राजनीति तक सीमित हो गई। उसकी इसी कमजोरी का लाभ दूसरी जमातों को मिला। खासकर मंडल की राजनीति के दौर में उससे कई जमातें छिटक गई तो कथित मंदिर आंदोलन ने भी उससे मध्यवर्ग तक को अलग कर दिया। अब उसे देखना होगा कि ये जमातें उसकी ओर कैसे लौटें। लेकिन यह दूसरों की राजनीति के नकल से नहीं, बल्कि ठोस राजनैतिक पहल से ही संभव हो पाएगा।
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