कूटनीतिक सफलता
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर चर्चा न होना बताता है कि भारत की कूटनीति के समक्ष पाकिस्तान और उसके सहयोग में खड़ा रहने वाले चीन की कूटनीति कमजोर पड़ गई है।
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पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति का हवाला देते हुए 12 दिसम्बर को परिषद् को चर्चा कर कुछ निर्णय लेने के लिए पत्र लिखा था। जाहिर है, सुरक्षा परिषद में उसकी बात को चीन ही आगे बढ़ा सकता था।
यही हुआ लेकिन 15 सदस्यों में से किसी का समर्थन नहीं मिला। कहा जा रहा है कि उसके बाद चीन ने बातचीत का प्रस्ताव ही वापस ले लिया। कई दिनों से संयुक्त राष्ट्र में खबर तैर रही थी कि सुरक्षा परिषद् के विमर्श कक्ष में अनौपचारिक बैठक के दौरान अन्य मुद्दों के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर पर भी चर्चा हो सकती है। जैसा हम जानते हैं कि इस तरह की बैठक सार्वजनिक रूप से नहीं होती।
बंद कमरे में गुप्त मंतण्रा होती है। यहां तक कि बैठक में कही गई बातों का कोई रिकॉर्ड तक नहीं रखा जाता। सुरक्षा परिषद् के सदस्यों के बीच सलाह-मशविरे के लिए ऐसी अनौपचारिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके पहले अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने चीन के माध्यम से सुरक्षा परिषद में बाजाब्ता औपचारिक चर्चा कराने की कोशिश की थी।
चीन ने प्रस्ताव भी दिया लेकिन किसी सदस्य का समर्थन न मिलने पर बंद कमरे का विमर्श हुआ जिसके बाद नियमानुसार कोई बयान तक जारी नहीं हुआ। उस समय भारतीय कूटनीति का मूल लक्ष्य किसी तरह औपचारिक चर्चा को रोकना था और उसमें सफलता मिली। किंतू पाकिस्तान के खून में कश्मीर मुद्दे का विष भरा है। वह हर कोशिश इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कर रहा है। कुरैशी का पत्र उसी का अंग था। चर्चा की संभावना भी बन गई थी लेकिन पूरा घटनाक्रम ऐसे मुड़ा कि यह न हो सकी।
चीन के राजनयिक ने इस विषय पर पूछे गए सवाल का जवाब नहीं दिया किंतु एक यूरोपीय राजनयिक अधिकारी ने सुरक्षा परिषद् की अनौपचारिक बैठक से पहले कह दिया कि कश्मीर पर चर्चा नहीं होगी क्योंकि चीन ने अपना अनुरोध वापस ले लिया है। चीन ने वाकई अपना अनुरोध वापस लिया है, तो यह बड़ी बात है। क्यों लिया, यह शायद ही स्पष्ट हो क्योंकि चीन इसे सार्वजनिक शायद ही करे। हमारे लिए चर्चा न होने देने का लक्ष्य महत्त्वपूर्ण था और वह हो गया। इसे निस्संदेह, कूटनीतिक सफलता कहना होगा।
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