अदालत की डांट
उच्चतम न्यायालय द्वारा दिल्ली एवं अन्य राज्यों में हो रही हिंसा पर की गई टिप्पणियां आंख खोलने वाली हैं। निस्संदेह इन टिप्पणियों से याचिकाकर्ताओं को धक्का लगा है।
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याचिकाकर्ताओं का लक्ष्य था कि उच्चतम न्यायालय पुलिस के खिलाफ टिप्पणी करे और कुछ ऐसा आदेश जारी कर दे जिससे कि पुलिस को बल प्रयोग करने से रोका जाए। पुलिस का मनोबल तोड़ा जा सके।
लेकिन उच्चतम न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में यह कहा कि अगर बसें जलाई जा रही हों, पत्थरों की वर्ष हो रही हो तो पुलिस को कैसे कहा जाए कि आप बल प्रयोग ना करो। अदालत ने कहा कि आंदोलन करना किसी का अधिकार हो सकता है, लेकिन हिंसा नहीं। न्यायालय की यह टिप्पणी भी महत्त्वपूर्ण है कि हम कोई अपीलीय न्यायालय नहीं हैं कि आप हर विषय को लेकर हमारे पास आ जाएं। आपको समस्या है, तो राज्यों के उच्च न्यायालयों में जाइए। उच्च न्यायालय इसमें कमेटी बनाकर जांच करा सकते हैं। वास्तव में उच्चतम न्यायालय के इस रु ख का पूरे देश में स्वागत हुआ है।
हर विवेकशील व्यक्ति के मन में था कि जिस ढंग से संविधान और कानून में मिले अधिकारों का दुरु पयोग करते हुए विरोध के नाम पर आगजनी और हिंसा हो रही है, यहां तक कि मौका मिलने पर पुलिस को भी पीटा जा रहा है, पुलिस पर पत्थरबाजी की जा रही है, पेट्रोल बम फेंके जा रहे हैं, उन सबकी मुखालफत होनी चाहिए। इतना कुछ होने के बावजूद पुलिस ने कहीं गोली नहीं चलाई है, ना उसने दिल्ली में गोली चलाई, ना अलीगढ़ में और ना ही नदवा में। जो याचिकाकर्ता थे उनसे पूछा जाना चाहिए आप क्या हिंसा के समर्थक हैं? वैसे तो नागरिकता कानून का विरोध ही समझ से परे है।
लेकिन अगर विरोध करना ही है तो शांतिपूर्ण ढंग से करिए। उच्चतम न्यायालय की सुनवाई के कुछ समय बाद ही जिस तरह दिल्ली के सीलमपुर, जाफराबाद इलाके में हिंसा हुई, पुलिस को दौड़ा दौड़ा कर पीटा गया, यहां तक कि स्कूल बस पर हमले किए गए, बसों में तोड़फोड़ की गई उससे पता चलता है कि कुछ असामाजिक, उपद्रवी और सांप्रदायिक तत्व हर हाल में चाहते हैं कि हिंसा हो। वे समाज में तनाव पैदा करना चाहते हैं। ऐसे तत्वों पर रोक लगाना बेहद जरूरी है। हमारा मानना है कि आंदोलन के नाम पर कुछ देश विरोधी तत्व आम लोगों को, छात्रों को अपना हथियार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनको परास्त करना पड़ेगा तथा पकड़ कर कानून के कठघरे में खड़ा करना पड़ेगा।
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