आरटीआई पर नाराजगी
सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना अधिकार कानून को लेकर जिस तरह की सख्त टिप्पणियां की हैं वह विचारणीय है।
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हालांकि याचिका केंद्र से राज्यों तक सूचना आयुक्तों की नियुक्ति का था, लेकिन न्यायालय ने पूरी स्थिति का एक डरावना खाका ही खींच दिया है। न्यायालय ने केंद्र व राज्य सरकारों को तीन महीने में खाली पड़े सूचना आयुक्तों का पद भरने का आदेश तो दिया; साथ ही इसके भयावह दुरु पयोग पर नाराजगी प्रकट की। शीर्ष न्यायालय ने साफ शब्दों में कहा कि सूचना का अधिकार कानून डराने-धमकाने और ब्लैकमेलिंग का जरिया बन गया है। सूचना कानून बनने के बाद से देखा गया है कि जिसका इससे कोई लेना-देना नहीं वह भी एक पेशेवर सूचना प्राप्तकर्ता की भूमिका में आकर अनावश्यक सूचनाएं मांगता है। ये सूचनाएं ऐसी होती हैं, जिनके आधार पर किसी अधिकारी-कर्मचारी को डराया धमकाया जाए और वसूली भी की जाए।
इस परिप्रेक्ष्य में मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ द्वारा आरटीआई कानून का दुरु पयोग रोकने के लिए दिशा-निर्देश बनाने की जरूरत बताना उचित है। आज भारत में ऐसा लगता है जैसे सूचना अधिकार कार्यकर्ता भी एक पद हो गया हो और यह पेशा है। कोर्ट ने इसी पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि क्या आरटीआई कार्यकर्ता होना पेशा हो सकता है? यह आम जनता को सही सूचना प्राप्त करने और उसके माध्यम से अपनी समस्याओं के निदान के लिए अधिकार देने वाला कानून है। वस्तुत: इस कानून के पीछे का उद्देश्य लोगों को उन सूचनाओं को बाहर निकालने की अनुमति देना था। इससे अच्छे काम भी हुए हैं।
पर इसका दुरु पयोग इससे कई गुणा ज्यादा हो रहा है। न्यायालय ने कहा कि लेटरहेड पर आरटीआई कार्यकर्ता होने का दावा करते हुए नाम छपवाते हैं। जो मामले से जुड़े नहीं हैं वे आरटीआई आवेदन दाखिल कर रहे हैं। यह मूल रूप से भारतीय दंड संहिता की धारा 506 के तहत आपराधिक धमकी है। तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसके खिलाफ कार्रवाई के लिए धारा भी बता दिया है, जिसके तहत मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। किंतु यह एक संवेदनशील मसला भी है। सूचना अधिकार पेशा नहीं हो सकता इसके लिए तो कदम अवश्य उठाए जाएं मगर ऐसा न हो कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी सूचना मांगने गए लोगों को ही प्रताड़ित करने लगें। इसलिए सरकार को सोच-समझकर दिशा-निर्देश बनाना होगा।
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