न्याय के मायने
हाल में बलात्कार और हत्या की बढ़ती वारदातों पर देश भर में नाराजगी की लहर यकीनन एक शुभ लक्षण है। समाज में ऐसी ही तीखी प्रतिक्रियाओं से अपराधियों में डर पैदा हो सकता है।
न्याय के मायने |
इस नाराजगी का एक पहलू यह भी है कि हमारी न्याय प्रक्रिया की लेट लतीफी से लोग आजिज आ चुके हैं। सो, धैर्य टूटने लगा है। हालात ऐसे हो गये हैं कि संसद में और संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी फटाफट न्याय की तरफदारी करने लगे हैं। इसलिए हैदराबाद में पुलिस ने एनकाउंटर में आरोपितों को मार गिराया तो उसे जायज ठहराया जाने लगा। यहां तक कि ये दलीलें भी दी जा रही हैं कि दया याचिका का प्रावधान भी बाल और महिला उत्पीड़न के अपराधों में खत्म किया जाना चाहिए।
लेकिन सवाल कई हैं। सबसे बड़ा सवाल तो देश के प्रधान न्यायाधीश ने ही उठाया है। उन्होंने कहा कि फटाफट न्याय में न्याय का चरित्र बदल जाता है, वह बदला जैसा हो जाता है। बदले की दलील पर कोई सभ्य व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। फिर कल को यह पता चले कि बेकसूर आदमी मारा गया तो क्या होगा। ऐसी मिसालें कम नहीं हैं। कुछ दिन पहले गु़रुग्राम में एक बच्चे की हत्या के आरोप में पकड़ा गया ड्राइवर बाद में बेकसूर निकला, जबकि पुलिस उससे जुर्म कबूल करवा चुकी थी। इसलिए पुलिस पर संदेह की गुंजाइश बनी रहती है।
असल में इन सभी मसलों पर लगभग एक सदी से अपने देश में भी काफी बहसें हो चुकी हैं। फिर राज्य को जान लेने की छूट बिरले मामलों में ही दी जा सकती है। दया याचिका का भी प्रावधान भी इसी वजह से है, ताकि सुधरने का मौका दिया जा सके। असल में बढ़ती वारदातें राज्य की नाकामी की भी मिसालें हैं। इसलिए राज्य अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए ऐसी दलीलें देने लगे जो मानव सभ्यता और न्याय की अवधारणा के ही खिलाफ है, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
गांधी जी कहा करते थे कि आंख के बदले आंख का न्याय चलेगा तो दुनिया अंधी हो जाएगी। इसलिए फटाफट न्याय और दया याचिका से वंचित करने की मांग का समर्थन नहीं किया जा सकता। इसके बदले राज्य व्यवस्था और सरकारों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।
दरअसल, राज्य को जवाबदेह न बनाने के कई खतरे हैं, जिन पर पहले भी काफी विचार हो चुका है। इस समय इस पर नये सिरे से सोचने की जरूरत है।
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