साझेदारी पर सवाल
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने थाईलैंड की राजधानी में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (आरसीईपी) की बैठक में भारत का पक्ष यह कहकर रखा है कि हमारे कारोबार को भी लाभ चाहिए। दरअसल, इस समझौते को लेकर विवाद यही है कि इससे कौन लाभान्वित होगा।
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यकीनन इस ओर कदम पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उठाए थे। तब भी यह विवाद का विषय बना था। कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी तब इसके प्रति शंकाएं जाहिर की थीं। विरोध करने वालों की दलील है कि अब तक के विपक्षी या बहुपक्षी व्यापार समझौतों से देश को कम दूसरे देशों को ज्यादा लाभ हुआ है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो चीन ही है। चीन से हमारा व्यापार संतुलन काफी बेमेल है।
हमारे यहां से व्यापार के मुकाबले चीन से आयात कई-कई गुना अधिक है। यह तो एक उदाहरण है। हाल में कृषि पैदावारों के आयात से भी संकट बढ़ा है और हमारे किसानों की आमदनी घटी है। सरकार कई बार महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए दलहन, तिलहन जैसे कृषि उपजों का आयात करती रही है और इससे हमारे यहां किसानों की उपज के दाम घटते रहे हैं। यह कृषि संकट आज इतने बड़े पैमाने पर हो गया है कि मांग की कमी से समूची अर्थव्यवस्था मंदी की गिरफ्त में चली गई है। इसीलिए द्विपक्षीय या बहुपक्षीय व्यापार समझौते इस दौरान लाभ के बदले घाटा ही दे सकते हैं।
हालांकि सरकार की दलील है कि हम सेवा क्षेत्र में काफी मजबूत हैं और इससे हमें लाभ होगा। लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था में संकट सेवा क्षेत्र का नहीं बल्कि कृषि और उत्पादन क्षेत्र से जुड़ा है। फिर गौरतलब यह भी है कि दस आसियान देशों के साथ जो 16 देश इस समझौते में शामिल हो रहे हैं, उनमें चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे कृषि और उत्पादन क्षेत्र के मजबूत देश हैं। ये देश सेवा क्षेत्र में भी पीछे नहीं हैं।
इसलिए कितना फायदा होगा, यह कहा नहीं जा सकता। अगर यह संभवत: होता है तो दुनिया में शायद सबसे बड़ा मुक्त व्यापार समझौता कहलाएगा। लेकिन संरक्षणवाद के इस दौर में हमें फिर से विचार करना चाहिए कि इससे हमारे किसानों, मजदूरों को क्या लाभ होने वाला है? एक तर्क यह भी है कि निवेश बढ़ेगा, लेकिन अभी तक का अनुभव यह है कि व्यापार समझौतों से निवेश ज्यादा नहीं बढ़ा है। इसलिए सोच-विचार की जरूरत है।
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