भाजपा-शिवसेना में खींचतान
महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के बीच कायम गतिरोध 2014 के पहले के गठबंधन सरकारों की खींचतान को याद दिलाता है।
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शिवसेना कह रही है कि भारतीय जनता पार्टी को यह लिखित गारंटी देना होगा कि ढाई साल उसका मुख्यमंत्री रहेगा एवं ढाई साल शिवसेना का। तभी कोई बात बनेगी। उसका यह रवैया वास्तव में महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों की ही परिणति है। अगर भारतीय जनता पार्टी की सीटें 135-40 तक पहुंच गई होती तो शिवसेना ऐसी मांग नहीं रख पाती।
शिवसेना की सोच यह है कि भारतीय जनता पार्टी को उनके साथ मिलकर सरकार बनाना मजबूरी है। अत: इसमें जितना मोलभाव कर सकते हैं, कर लेना चाहिए। हालांकि राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व एवं अनैतिक व्यवहार है। अनैतिक इस मायने में कि भारतीय जनता पार्टी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री के रूप में सामने रखकर ही चुनाव लड़ा था।
शिवसेना को इसका अच्छी तरह पता था। चुनाव के पूर्व उसने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी थी। अगर चुनाव के पूर्व शर्त रखी होती तब उसकी मांगें नैतिक मानी जा सकती थीं और अपरिपक्व इस मायने में कि शिवसेना की हालत महाराष्ट्र में ज्यादा बुरी है। वह 124 में आधी सीटें जीतने में भी कामयाब नहीं हुई। 2014 में विधानसभा चुनाव अलग लड़ने के बाद उसे केवल 63 सीटें मिली थीं।
जाहिर है कि हालिया सम्पन्न हुए चुनाव में उसे जो भी सफलता मिली है, उसमें भाजपा का बहुत बड़ा योगदान है। लोक सभा चुनाव में तो नरेन्द्र मोदी का नाम ही उसकी सफलता का सबसे बड़ा कारण था। इन सब की अनदेखी करते हुए अगर वह अपनी मांगों पर अड़ती है और भाजपा के साथ उसकी सरकार नहीं बन पाती है तो ज्यादा क्षति उसे ही होगी। यह भी हो सकता है कि अभी विपक्ष के साथ उसकी सरकार बन जाए तो भी यह लंबा नहीं खींचेगा। अंत में यह शिवसेना के चुनावी और राजनीतिक पतन का ही कारण बन सकता है।
इसके विपरीत, भाजपा को इससे ज्यादा क्षति की आशंका कम है। भाजपा को ज्यादा क्षति तो शिवसेना के साथ गठबंधन के कारण हुआ क्योंकि उसकी पार्टी के विद्रोही भारी संख्या में मैदान में उतर गए। शिवसेना से अलग होकर लड़ने में ऐसी स्थिति नहीं होगी। शिवसेना अकेले लड़ कर कभी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकती। लिहाजा, उसे इन बातों पर विचार करके ही प्रदेश हित में कदम उठाना चाहिए।
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