शहरी विकास को चुनौती
ज्यादा दिन नहीं हुए और अब फिर सर्वोच्च न्यायालय को दिल्ली में अतिक्रमण हटाने के लिए आदेश देना पड़ा है।
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न्यायालय ने स्थानीय निकायों को आदेश दिया है कि फुटपाथ से अतिक्रमण हटाया जाए। न्यायालय की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर अतिक्रमणकारी नोटिस देने के 15 दिन के भीतर अतिक्रमण नहीं हटाता है, तो नगर निगम उस अवैध निर्माण को ध्वस्त कर दे और उससे उसका खर्च वसूला जाए।
अतिक्रमण हो या अवैध निर्माण, न्यायालय इस पर पहले भी आदेश दे चुका है। स्थानीय प्रशासन की हरकत के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। पिछले साल ही न्यायालय को डीडीए से सवाल करना पड़ा था कि अतिक्रमण के खिलाफ अभियान में अमीर क्यों छोड़ दिए गए? दिल्ली का यह हाल है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के अन्य हिस्सों की स्थिति क्या होगी? सड़क किनारे के अतिक्रमण की समस्या से क्षुब्ध होकर पटना उच्च न्यायालय ने इसी साल सरकारी बाबुओं को ही तलब कर लिया था। न्यायालय की सक्रियता यह प्रदर्शित करने के लिए काफी है कि कार्यपालिका निष्क्रिय है।
लेकिन अहम सवाल है कि न्यायालय के बार-बार हस्तक्षेप के बावजूद प्रशासन और पुलिस इसके प्रति तत्पर क्यों नहीं होते? क्या इसका अर्थ लगाया जाए कि वे अतिक्रमण रोकने में सक्षम नहीं हैं, या अतिक्रमणकारियों से उनकी मिलीभगत है? लेकिन इस समस्या का दूसरा पहलू भी है, जो सरकारों को एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रभावी कार्रवाई करने से रोकता है। बेशक, सड़क या फुटपाथ आम आदमी के लिए है, लेकिन जनता के वोट से बनी संस्थाओं के लिए यह आसान भी नहीं होता कि अतिक्रमणकारियों को एक झटके में हटा दें।
उनसे अपेक्षा की जाती है कि फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों का पुनर्वास करें। इस परिप्रेक्ष्य में देखना दिलचस्प होगा कि अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव का सामना करने जा रही दिल्ली में न्यायालय के मौजूदा आदेश के प्रति स्थानीय निकायों का रवैया कैसा रहता है? लेकिन एक बात साफ है कि अतिक्रमण शहरी विकास के लिए चुनौती बन चुका है। समस्या की जड़ बढ़ती आबादी और सीमित संसाधनों में छिपी है। पेशागत जरूरतों के लिए अतिक्रमण बढ़ने लगा है। ‘स्मार्ट सिटी’ की राह पर चलने वाले देश में अतिक्रमण की समस्या को अभी तक न सुलझाया जाना चिंताजनक है।
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