राजनीति बनाम अर्थशास्त्र
भाजपा ने हालांकि देश की आर्थिक हालत बेहद चिंताजनक होने के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है पर मनमोहन सिंह ने जो बातें कहीं हैं, उन पर संवाद की जरूरत है।
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गौरतलब है कि कुछ समय पहले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने देश की गिरती अर्थव्यवस्था पर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा कि पिछली तिमाही में जीडीपी का 5 फीसद पर आना दिखाता है कि अर्थव्यवस्था एक गहरी मंदी की ओर जा रही है।
यह भी कहा कि भारत के पास तेजी से विकास दर की संभावना है, लेकिन मोदी सरकार के कुप्रंधन की वजह से मंदी आई है। मनमोहन सिंह के मुताबिक मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ग्रोथ रेट 0.6 फीसद पर लड़खड़ा रही है। इससे साफ जाहिर होता है कि हमारी अर्थव्यवस्था अभी तक नोटबंदी और हड़बड़ी में लागू किए गए जीएसटी से उबर नहीं पाई है। डॉ. सिंह ने कहा कि भारत इस लगातार मंदी को झेल नहीं सकता है, इसलिए हम सरकार से गुजारिश करते हैं कि अपनी राजनीतिक बदले के एजेंडे को किनारे रखे। इसके जवाब में भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि वह थे तो अर्थशास्त्री, लेकिन जिन लोगों ने पर्दे के पीछे से उन्हें निर्देशित किया, उससे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिला और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा।
यह राजनीतिक बहस तो अपनी जगह है पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन की इस बात को सुना जाना चाहिए कि जीएसटी और नोटबंदी से जुड़ी जिन वजहों से अर्थव्यवस्था बाधित हुई है, उन वजहों को दूर किया जाना चाहिए। सरकार खुद भी मानती है कि जीएसटी की व्यवस्था में बेहतरी की गुंजाइश है। और यह बात मनमोहन सिंह ने ही नहीं, रिजर्व बैंक ने भी रेखांकित की है कि अर्थव्यवस्था में मांग का संकट है, यानी मांग पैदा नहीं हो रही है।
रिजर्व बैंक के बाद सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि निजी उपभोग में बढ़ोतरी की रफ्तार बहुत कम है। यानी लोग बहुत ही संभल-संभल कर खर्च कर रहे हैं या खर्च करने से बच रहे हैं। लोकतंत्र संवाद से चलता है, आर्थिक मसलों पर चर्चा के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाई जा सकती है। तमाम सांसद और कार्यकर्ता मांग करते रहे हैं कि खेती-किसानी की अर्थव्यवस्था पर विमर्श के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाए। यानी एक मसले पर तमाम दृष्टिकोण सामने आ जाएं, तो हर्ज नहीं है।
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