समीक्षा जरूरी
असम सरकार एवं केंद्र सरकार का यह आश्वासन कि जब तक अंतिम निर्णय नहीं आता किसी को विदेशी नहीं माना जाएगा; उन लोगों को राहत पहुंचाने वाला है, जिनका नाम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर या एनआरसी में नहीं आ सका है।
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जिनके नाम नहीं हैं वे न्यायाधीकरण में अपील कर सकते हैं और वहां से खारिज होने के बाद उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकते हैं। यानी नागरिकता से वंचित किए गए लोगों के लिए उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है। 19 लाख 6 हजार 657 कोई छोटी संख्या नहीं है। हालांकि बांग्लादेशी घुसपैठियों की जितनी संख्या शोधकर्ता और राजनीतिक दल बता रहे थे उससे यह काफी कम है। असम में विदेशी घुसपैठियों और अवैध अप्रवासियों का मुद्दा इतना बड़ा रहा है कि वहां इसके लिए व्यापक आंदोलन हुए। राजीव गांधी द्वारा 1985 में समझौते के बाद उम्मीद बंधी थी लेकिन घोषणा के अनुसार उनके कार्यकाल में एनआरसी तैयार नहीं हो सका। उसके बाद की सरकारें भी ऐसा करने में सफल नहीं रहीं। आंदोलन होते रहे, स्थानीय स्तर पर हिंसा और सांप्रदायिक दंगे तक हुए, पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण विदेशियों की पहचान का काम नहीं हो सका। जाहिर है, पांच-छह दशक बाद अनेक अवैध अप्रवासियों के परिवारों की पहचान कठिन है।
हालांकि 1951 के एनआरसी, 24 मार्च 1971 के पूर्व के अनेक प्रमाण पत्रों के आधार पर इसकी पहचान की कोशिश हुई है, किंतु किसी भी तरीके से एक-एक व्यक्ति की पहचान कठिन है। कहा जा रहा है कि इसमें अनेक वैध लोगों के नाम नहीं आ पाए हैं तो अवैध के नाम आ गए हैं। साफ है कि इस सूची की फिर से समीक्षा की आवश्यकता है। जिन क्षेत्रों की शिकायत ज्यादा है वहां प्रक्रिया दोहराने के अलावा कोई चारा नहीं है। असम सरकार को भी अपनी ओर से उन लोगों के साथ खड़ा होना चाहिए, जो असमी होते हुए अपने को असमी साबित नहीं कर सके। हमारा मानना है कि जब विदेशियों की पहचान में इतना समय लग गया तो कुछ समय और देने में हर्ज नहीं है। राजनीतिक दल राजनीति न करें तो बेहतर होगा। किसी भी देश में भारी संख्या में विदेशी आकर समाज में घुसपैठ कर जाए, इसे स्वीकार नहीं किया जाता। स्थानीय लोगों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, परंपरागत संस्कृति-सभ्यता, धर्म-विरासत की कीमत पर किसी को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।
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