तीन तलाक को तलाक
संसद के दोनों सदन से तीन तलाक यानी मुस्लिम महिला विवाह संरक्षण विधेयक का पारित होना ऐतिहासिक घटना है।
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भारत जैसे देश में जहां राजनीतिक दलों की मुख्य चिंता वोट बैंक की होती थी, वहां एक समुदाय के बड़े वर्ग का विरोध झेलते हुए ऐसे प्रगतिशील न्यायपूर्ण कानून बनाने की कुछ वर्ष पूर्व में कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। यही देश है जहां एक बूढ़ी महिला शाहबानो को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए गुजारा भत्ता के आदेश को संसद ने एक समुदाय के दबाव में आकर पलट दिया था।
दो वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में साफ कर दिया था कि एक साथ तीन तलाक गैर इस्लामी, गैर कानूनी एवं संविधान विरोधी है यानी एक साथ तीन तलाक कहने भर से तलाक नहीं होगा। बावजूद तीन तलाक होते रहे। पीड़ित महिलाएं पुलिस के पास जाती थीं, लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं था जिसके तहत पुलिस कार्रवाई कर सके। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को मूर्त रूप देने एवं इस कुप्रथा का अंत करने के लिए कड़े कानून बनाना जायज कहा जा सकता है। अब पुरु ष के अहं से ग्रस्त लोग अपनी मानसिक कुंठा से महिलाओं को अपने ठेंगे पर रखने का साहस नहीं करेंगे। करेंगे तो उनके खिलाफ कानून कार्रवाई करेगा। महिलाओं को न्याय पाने का बड़ा आधार मिल गया है।
यह मुस्लिम समाज के अंदर समाज सुधार का कानूनी कदम है। किंतु कोई भी सुधार समाज के सहयोग के बगैर सफल नहीं हो सकता। साहसी महिलाएं तो खड़ी होंगी, लेकिन आम महिलाएं अभी भी परिवार और मजहब के तहत ही समस्या के समाधान की कोशिश करेंगी जिसमें उनको अनेक जलालत से गुजरना होगा। समाज के एक बड़े वर्ग के अंदर भाव बिठाया गया है कि हमारे पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप किया जा रहा है। जाहिर है कि समाज के विवेकशील लोगों को आगे आना होगा। केवल कानून से महिलाओं को न्याय नहीं मिल सकता।
ऐसे किसी भी समाज सुधार कानून के दुरु पयोग की भी संभावना रहती है। इसमें भी है। इसके लिए भी सचेत होने की जरूरत है। इसमें पुलिस-न्यायालय की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हिंदुओं में दहेज कानून का ज्यादातर दुरु पयोग हुआ है, और इस कारण समाज सुधार का यह कानून सफल नहीं हुआ। जिस तरह तीन तलाक संबंधी बहस में मुस्लिम समाज से ही महिलाएं खुलकर सामने आई हैं, उससे समाज जागरण का पता चलता है। इस प्रक्रिया को और तेज करना होगा जिसका प्रतिगामी समूह पूरा विरोध करेगा।
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