संतुलित फैसला
कर्नाटक पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से एक बार फिर साफ हुआ है कि हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका संवैधानिक मामलों में अत्यंत सधी हुई भूमिका अदा करती है।
संतुलित फैसला |
न्यायालय ने अपने फैसले में साफ भी किया है कि उसके सामने संवैधानिक संतुलन बनाना पहली प्राथमिकता है। वस्तुत: विधानसभा अध्यक्ष संवैधानिक पद है। संविधान ने शासन के तीनों अंगों के बीच संतुलन स्थापित करते हुए सबके लिए भी सीमा रेखाएं खींची हैं। जब किसी एक अंग का कोई व्यक्ति इस सीमा का उल्लंघन करते हुए दिखता है, तो न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यहां विधानसभा अध्यक्ष के सामने 16 विधायकों के इस्तीफे पड़े हुए हैं। पहला इस्तीफा एक जुलाई को आया और 12 विधायकों का 6 जुलाई को। इस पर उनको एक समय-सीमा के अंदर निर्णय करना चाहिए था। जब उन्होंने नहीं किया तो विधायक सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए।
उसके बाद तीन और विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। न्यायालय अपने पहले की तीन सुनवाई में संकेत देता रहा कि अध्यक्ष महोदय को फैसला कर लेना चाहिए। उनके पद की गरिमा देखते हुए न्यायालय ने विधायकों को आदेश दिया कि वह 11 जुलाई को शाम छह बजे तक अध्यक्ष के कार्यालय में उपस्थित हों तो वे हुए। बावजूद उन्होंने फैसला नहीं लिया। एक बार न्यायालय को यह भी कहना पड़ा कि क्या अध्यक्ष हमारे अधिकार को चुनौती दे रहे हैं? फिर भी अध्यक्ष ने फैसला नहीं किया। इस बीच, सत्तारूढ़ कांग्रेस एवं जनता दल-सेक्युलर ने विधानसभा में विश्वास मत प्रस्ताव के लिए ह्विप जारी कर दिया। अब विधायकों के सामने समस्या हो गई थी कि इसमें शामिल नहीं हुए तो उन पर दल-बदल कानून लागू होगा।
इससे कुमारस्वामी सरकार की नियति पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि वह बहुमत खो चुकी है। किंतु ये विधायक इस विधानसभा के कार्यकाल में चुनाव लड़ने से वंचित हो जाएंगे। न्यायालय ने उन्हें राहत दे दी है। उनके लिए विधानसभा के सत्र में भाग लेना आवश्यक नहीं है यानी ह्विप उन पर लागू नहीं होगा। हालांकि न्यायालय ने अभी भी अपनी ओर से फैसला देने की जगह गेंद फिर अध्यक्ष के पाले में डाल दी है। अध्यक्ष जो भी निर्णय करेंगे, उसकी समीक्षा न्यायालय करेगा। उसने कहा भी है कि इस मामले में कई प्रश्न उठे हैं, जिन पर वह बाद में अपनी राय देगा। हमारा मानना है कि अध्यक्ष को अपने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए संविधान की भावना के अनुरूप तुरंत फैसला करना चाहिए।
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