ऐतिहासिक सफलता

Last Updated 24 May 2019 06:58:43 AM IST

निश्चित रूप से यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी-भारतीय जनता पार्टी-की शानदार जीत है। अब तक के नतीजों और रुझानों को देखते हुए न केवल मतों की फीसद और सीटों की बढ़ी तादाद के लिहाज से बल्कि जनाधार में भौगोलिक विस्तार की दृष्टि से भी भाजपा की यह ऐतिहासिक सफलता है।


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

ऐसे कि भाजपा ने देश के पूरब, उत्तर, मध्य और पश्चिमी के रणनीतिक रूप से अहम सभी सूबों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। कर्नाटक-तेलंगाना छोड़ कर बाकी सूबों में नतीजे लाने लायक भाजपा की पैठ अभी नहीं बनी है। इस तरह पांच दशकों में यह पहली बार है, जब कोई पार्टी अपने दम पर पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौट रही है। एंटी-एंकम्बेंसी के कुछ वाजिब मुद्दों के बावजूद। वह भी तब जब दिसम्बर 2018 में भाजपा हिन्दी पट्टी के अपने तीन मजबूत गढ़ों-मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान-को कांग्रेस के हाथों हार गई थी। इसके बाद भाजपा और उसके एनडीए की पुनर्वापसी को असंभव नहीं तो कठिन माना जाने लगा था। तेलुगूदेशम जैसे कई साथी कई बहानों से साथ छोड़ रहे थे। इनके बावजूद नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की टीम ने क्षेत्रीय-वर्गीय आधारों पर मुद्दों को बारीकी से चुनते हुए उन्हें अपना ‘संकल्प’ बनाया।

फिर अपने बेहद संगठित, गतिशील और सतत जुनूनी चुनाव अभियान के जरिये जीत के राष्ट्रीय नैरेटिव को ही बदल दिया। पूरे कार्यकाल प्राय: सभी क्षेत्रों में विकास ने इस अवधारणा को भी बदल दिया है कि देश में एकल दल के दखल वाला आजादी बाद का दौर अब नहीं लौटने वाला। इसे भी कि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण राष्ट्र राज्य में सत्ता-संतुलन बनाये रखने के लिहाज से एक कमजोर राष्ट्रीय पार्टी की कमान में क्षेत्रीय दलों वाली सरकार जायज होगी। दरअसल, इस मान्यता की शुरुआत 1977 में केंद्र में जनता पार्टी सरकार के गठन से होती है, जो राजीव गांधी सरकार के कालखंड को छोड़ कर कांग्रेस-यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार तक जारी रहती है। इस सिलसिले को नरेन्द्र मोदी ही पहली बार 2014 में तोड़ते हैं। 2019 में अपनी अगुवाई में भाजपा को लगातार दूसरी बड़ी जीत दिला कर मानो यह मुनादी करते हैं कि अकेली पार्टी का दौर कहीं गया नहीं है। यह मुनादी उस वक्त में है, जब मोदी सरकार के कार्यकाल की अंतिम पांच तिमाही में आर्थिक विकास दर सबसे कम 6.6 फीसद है। नोटबंदी के गलत निर्णय से ठप पड़े काम-धंधे ने बेरोजगारी बढ़ाई है। जीएसटी पर एक लंबे समय तक बनी दुविधा ने विकास को रोके रखा। औद्योगिक उत्पादन और कृषि विकास दर शून्य की स्थिति में है। काबू में रही महंगाई जोर मारने लगी है। साम्प्रदायिक विवादों, असहमति को दबाये जाने से लेकर संवैधानिक-प्रशासनिक संस्थाओं की साख को सरकार के दुष्प्रभावित करने के व्यापक होते आरोपों, किसान आंदोलनों और बाद में राफेल खरीद प्रकरण में तो खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका तक को शक से देखा गया। फिर भी विपक्ष के रूप में कांग्रेस ने इसका फायदा नहीं उठाया। मोदी पर कट्टरपंथी हिन्दुत्व और संकीर्ण राष्ट्रवाद को शह देने के बावजूद कांग्रेस कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं रख सकी। हालांकि उसका आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए पहले पंजाब और बाद में मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कायम हुई उसकी सरकारें थीं। पर न तो वह अकेली (मप्र-छत्तीसगढ़-राजस्थान) शिकस्त दे सकी और न ही सीमित गठबंधन (बिहार-महाराष्ट्र) कर ही चुनौती दे सकी। इसमें अपवाद बस पंजाब है, जो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की बदौलत नहीं बल्कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह के कौशल से बचा रहा है। पीवी नरसिंह राव से लेकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सफलतापूर्वक गठबंधन सरकार चलाने के बावजूद अपनी अगुवाई में चुनाव पूर्व राष्ट्रीय गठबंधन ही नहीं बना सकी। ‘हम निभाएंगे’ में कतिपय प्रगतिशील वादों को भी वोटरों तक ले जाने लायक न तो कांग्रेस के पास नेता था और न जमीनी संगठन। आखिरी वक्त में प्रियंका गांधी वाड्रा को सीमित बागडोर देने का भी कोई फायदा नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश के नतीजे तो प्रियंका के लिए एक संभावना की अकाल-मृत्यु जैसा साबित हुआ। अलबत्ता, उसकी सीटों व मत प्रतिशत में मामूली इजाफा ही हुआ है। बावजूद इसके लोक सभा में विपक्षी दल होने का रुतबा उसे हासिल नहीं हो पाएगा। उत्तर प्रदेश ने अपने परिणामों से मतदाताओं के विभाजित नये समाज से परिचय कराया है। जिसने जाति और वंश पर मत देने के पुराने रिवाजों से ऊपर उठकर अपने आर्थिक-सामाजिक फायदों को तरजीह दिया है। इसको एक नया विकसित आर्थिक वर्ग कह सकते हैं, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कई जनोपयोगी योजनाओं ने निर्मित किया है। और जिसे भाजपा की हिन्दुत्ववादी और राष्ट्रवादी निर्मितियों से गुरेज नहीं है। यह ट्रेंड भारतीय राजनीति को नया रास्ता सुझा सकता है। ममता बनर्जी को भी, जिन्हें सही तरीके से परिभाषित विकास और शासन के संतुलित एजेंडे पर टिके रहने के बजाय तुष्टीकरण की एकतरफा आक्रामक राजनीति से बाज आना होगा। उनका एकतरफा झुकाव ने ही पश्चिम बंगाल में भाजपा को ऐतिहासिक कामयाबी दिलाई है। अब तो बंगाल के केसरियामय होने के आसार प्रबल हो गए हैं। बिहार में भाजपा-एनडीए की जीत भी कई संशयों व अनुमानों को ध्वस्त करती है और नये विमर्श रचती है। पर वामदल का लुप्तप्रायता की ओर बढ़ते दिखना दुखद है। अब यह उम्मीद की जानी चाहिए मोदी की दूसरी पारी जीत की जवाबदेहियों को याद रखेगी।



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