राष्ट्रपति की जाति
चुनाव प्रचार में कुछ नेताओं द्वारा प्रयोग की जा रही शब्दावलियों से पूरा माहौल विषाक्त हो रहा है।
राष्ट्रपति की जाति |
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राष्ट्रपति की जाति बताकर इसमें ऐसा आयाम जोड़ा है जो इसके पहले कभी नहीं हुआ। गहलोत जैसे अनुभवी नेता अगर इस तरह की बात करते हैं तो फिर गैर अनुभवी और क्षेत्रीय नेताओं से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। वे राष्ट्रपति को विशेष जाति समुदाय का प्रतिनिधि बताते हुए कहते हैं कि भाजपा ने उनको इसीलिए बनाया ताकि उस समुदाय का वोट उसे मिल सके।
हो सकता है रामनाथ कोविन्द को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाते समय भाजपा की यही सोच रही हो। राजनीतिक पार्टियां और सरकारें किसी को उम्मीदवार बनाने से पहले कई पहलुओं पर विचार करतीं हैं। कांग्रेस ने प्रतिभा देवीसिंह पाटिल को किस आधार पर राष्ट्रपति बनाया इसका कोई समाधानपरक उत्तर हमें नहीं मिलता। जो भी हो अभी तक राष्ट्रपति की गरिमा और सम्मान को नेताओं ने लगभग बनाए रखा था।
राष्ट्रपति के बारे में वक्तव्य या उनके साथ व्यवहार में मर्यादा बनी रही है। यह मर्यादा गहलोत के वक्तव्य से टूटी है। यह अत्यंत ही चिंता का विषय है कि देश की प्रमुख और सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली पार्टी के वरिष्ठ नेता ने इस तरह का बयान दिया है।
अगर आपने अपनी राजनीति में राष्ट्रपति को घसीट दिया तो बचेगा गया? चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को लंबे समय से निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे-ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं जिनसे उसकी साख पर प्रश्न खड़ा हो जाए। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक पर सार्वजनिक रूप से प्रश्न खड़ा किया जा चुका है। राजनीतिक दल इस तरह अगर सारे संवैधानिक संस्थाओं, सर्वोच्च पद तक को निशाना बनाते रहेंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा? संसदीय लोकतंत्र का भविष्य सत्ता संतुलन और राजनीतिक दलों के व्यवहार पर निर्भर करता है।
संवैधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन बनाया गया है तो उसका सम्मान और साख बनाए रखने का दायित्व राजनीतिक दलों का ही है। राष्ट्रपति किसी जाति, क्षेत्र या संप्रदाय के हों, वे देश के अभिभावक होते हैं। राष्ट्रपति पद पर काबिज होने के साथ शेष पहचान पीछे रह जाता है। नेताओं को भी इसका ध्यान रखना चाहिए। उनको किसी जाति समूह का सदस्य बताने का नकारात्मक परिणाम यह भी हो सकता है कि कुछ लोग उनके फैसले को जातीय आईने में देखने लगें।
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