आरक्षण का दांव
सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए दस फीसद आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन विधेयक संसद के शीत सत्र के अंतिम दिन लोक सभा में पेश कर दिया गया।
आरक्षण का दांव |
संसद के दोनों सदनों से यह संविधान संशोधन बिल पारित हो जाता है, तो आरक्षण का मौजूदा कोटा 49.5 से बढ़कर 59.5 फीसद हो जाएगा।
मोदी सरकार ने जिस तरह से वर्तमान सत्र के अंतिम दिनों में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का फैसला लिया, उससे सरकार की राजनीतिक विवशता ही दिखाई दी। सरकार इस मुद्दे को लेकर गंभीर होती तो अपने कार्यकाल के पहले दौर में इस विधेयक को लेकर आती। माना जा रहा है कि हिंदी क्षेत्र के तीन राज्यों में भाजपा को मिली हार के बाद सरकार को यह फैसला लेना पड़ा। यह भी कहा जा रहा है कि सरकार ने यह कदम एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने से नाराज सवर्णो को अपने साथ जोड़े रखने के लिए उठाया है।
वास्तव में मोदी सरकार ने आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का प्राथमिक क्राइटेरिया के रूप में स्वीकार करके आरक्षण की मूल अवधारणा को ही बदल दिया है क्योंकि अब तक यह माना जा रहा था कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को बराबरी पर लाने के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए। शुरुआती जानकारी के मुताबिक, आरक्षण उन्हीं लोगों को मिलेगा जिनके परिवार की वाषिर्क आय आठ लाख से अधिक नहीं होनी चाहिए, कृषि भूमि पांच एकड़ से कम हो और आवासीय घर एक हजार वर्ग फुट से ज्यादा न हो।
अगर इस पैमाने पर आरक्षण लागू किया जाए तो देश की बहुसंख्यक जनता इसकी परिधि में आ जाएगी। गौरतलब है कि इस आय समूह वाली जनसंख्या मध्यवर्गीय है, जो लगातार आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग कर रही थी। पिछले कुछ दिनों से आरक्षण को लेकर कई तरह की मांगें उठ रही थीं। एक यह भी थी कि जिस परिवार की एक या दो पीढ़ी इसका लाभ उठा चुकी है, उसको आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए।
जाट, मराठा और पाटीदार जैसी जातियां भी आरक्षण की मांग कर रही हैं। लेकिन अहम सवाल यह है कि नौकरियां हैं कहां? बीते दिन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकान्ॉमी ने आंकड़ा जारी किया है कि पिछले साल एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं। तो यह मान लेना चाहिए कि आरक्षण राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होने लगा है।
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