ऐतिहासिक भूल सुधार
वर्ष 2016 से चल रही जद्दोजहद के बाद केंद्र सरकार द्वारा तैयार नागरिकता संशोधन विधेयक लोक सभा से पास हो गया।
ऐतिहासिक भूल सुधार |
यह विधेयक 1955 में बनाए गए नागरिकता कानून में संशोधन करने को अभिप्रेरित है। इसके तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में रहने वाले गैर-मुस्लिमों यानी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता प्राप्त करना आसान हो जाएगा। वे छह साल में ही भारत की नागरिकता प्राप्त करने के लिए पात्र हो जाएंगे। इस श्रेणी में आने वाले ऐसे हजारों-लाखों लोग भारत के विभिन्न प्रांतों में अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर हैं।
विभाजन के समय भारत की तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी दे दी गई होती तो यह नौबत न आती। लेकिन इन पड़ोसी देशों में जिस प्रकार गैर-मुस्लिमों का उत्पीड़न किया जाता रहा, उसका नतीजा हुआ कि वहां से भारी संख्या में उनका भारत में पलायन हुआ। स्पष्ट है कि यह पलायन आर्थिक नहीं, धार्मिंक कारणों से हुआ।
ऐसे लोग न केवल असम, बल्कि राजस्थान, गुजरात, प. बंगाल, मध्य प्रदेश, दिल्ली जैसी जगहों में भी रह रहे हैं। लेकिन इसका विरोध मूलत: असम में हो रहा है, जबकि इस विधेयक का संबंध केवल असम से ही नहीं है, बल्कि पूरे देश से है। केंद्र सरकार असम समझौते के मद्देनजर वहां के मूल निवासियों के राजनीतिक-सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए कई कदम उठा रही है।
इसके बाद वहां विरोध का कोई औचित्य नहीं था। इसके बावजूद विरोध हो रहा है, तो यही कहा जा सकता है कि वह नासमझी भरा है, जो उनके दीर्घकालिक हितों की अनदेखी करने वाला है। असम गण परिषद ने असम में भाजपा के नेतृत्व में चलने वाली सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है, और कई संगठन विधेयक के विरोध में सड़क पर उतर चुके हैं।
यही नहीं, लोक सभा में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम जैसी पार्टयिां विरोध में खड़ी हो गई। इनसे उम्मीद थी कि ये पार्टयिां इतिहास की भूल को दुरु स्त करने में सहायक होंगी लेकिन इनका दृष्टिकोण निराशाजनक रहा। इनकी नजर में यह राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के खिलाफ है। ऐसे में इन पार्टयिों को देश विभाजन से उपजे उन सवालों का भी जवाब देना होगा, जिनका इंतजार देश को आज भी है।
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