जनादेश के निहितार्थ
गुजरात विधान सभा चुनाव के नतीजों को एक वाक्य में सूत्रबद्ध करके कहा जाए तो गांधीनगर में भाजपा की छठी बार सरकार बन रही है, और कांग्रेस आगामी पांच साल तक विपक्ष की भूमिका में रहेगी.
जनादेश के निहितार्थ |
हालांकि 2012 के चुनाव की तुलना में भाजपा की सीटें कम हुई हैं, जबकि कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपनी सीटों में इजाफा किया है. इसलिए इस जनादेश के गहरे राजनीतिक अर्थ हैं. यह भाजपा और कांग्रेस दोनों को आत्मावलोकन करने का संदेश देता है. सवाल महत्त्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, दोनों का गृह प्रदेश गुजरात है.
तो भी भाजपा को सत्ता बचाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना बहाना पड़ा. आखिर प्रधानमंत्री की नीतियों में कहां खोट रह गई कि गुजरात के युवा उनसे अलग हो गए जबकि उन्हें युवाओं में सबसे अधिक लोकप्रिय माना जाता है. ठीक है कि इस जीत से भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ेगा लेकिन कम अंतर की इस जीत से उसका इकबाल जरूर कम हुआ है. इसलिए मानने में हिचक है कि गुजरात की जनता ने मोदी की आर्थिक नीतियों (नोटबंदी, जीएसटी) और गुड गवन्रेस का समर्थन किया है.
दूसरी ओर, इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है कि गुजरात के चुनाव ने राहुल गांधी को परिपक्व नेता के रूप में स्थापित कर दिया है. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अनुशासित ढंग से बिंदुवार मुद्दों को उठाया. हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी को अपने साथ लाकर नया सामाजिक समीकरण भी बनाया, लेकिन भाजपा की बाइस सालों की सत्ता-विरोधी लहर को जीत में तब्दील करने में विफल रहे. यह कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे की कमजोरी की ओर इशारा करता है.
चुनाव नतीजों के शुरुआती रुझान आने के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने इस कमजोरी को स्वीकार भी किया. फिर, पूरे चुनाव अभियान के दौरान राहुल को छोड़कर कांग्रेस का कोई कद्दावर नेता गुजरात में दिखाई नहीं दिया. चुनाव रणनीति की दृष्टि से यह पार्टी की नासमझी थी.
इस तरफ पार्टी को विचार करना चाहिए. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने मर्यादाविहीन बयान देकर अपने ही पाले में आत्मघाती गोल किया. हालांकि उन्हें राहुल के निर्देश पर तुरंत निलंबित करके डैमेज कंट्रोल की कोशिश की गई लेकिन तब तक चुनावी नजारा बदल चुका था. बहरहाल, जीत तो जीत होती है, और हार-हार. इसे कबूल करना ही चाहिए.
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