दायरे से बाहर दूध
हमेशा से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा रहा है-दूध. सभी वयों के लिए पौष्टिकता के लिहाज से इसे एक संपूर्ण आहार माना जाता रहा है.
फाइल फोटो |
देश में दूध का कारोबार आज करोड़ों डॉलर के व्यापार में तब्दील हो चुका है. लेकिन बदकिस्मती यह है कि उदारवादी बाजार अर्थव्यवस्था के कारण दुग्ध उत्पादकों अर्थात पशुपालकों को उनके इस उत्पाद की पूरी कीमत नहीं मिल पाती. इसी को ध्यान में रखते हुए कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले पशुपालन, डेयरी एवं मत्स्य विभाग की तरफ से दूध को आवश्यक वस्तुओं की सूची में डालने का प्रस्ताव रखा गया था.
विभाग का मानना था कि दूध के व्यवसाय से जुड़े किसानों एवं उपभोक्ताओं-दोनों के हितों-का समान रूप से ध्यान रखा जाए. आज बाजार में दूध की कीमत आम तौर लगभग 52 रुपये प्रति लीटर है जबकि दूध के व्यवसाय से जुड़ी कंपनियां इसे बमुश्किल 24 से 26 रुपये प्रति लीटर की दर से खरीदती हैं.
मतलब यह कि इन कंपनियों को दोगुने से भी अधिक लाभ हासिल होता है. यही नहीं, ये कंपनियां बीच-बीच में मनमाने तरीके से दूध के भावों में 2-3 रुपये प्रति लीटर तक वृद्धि भी कर देती हैं पर इस लाभ का कोई भी हिस्सा पशुपालकों तक नहीं पहुंचता. अगर दूध को अनिवार्य वस्तुओं की सूची में शामिल कर दिया जाता है तो दूध कंपनियों के लिए मनमाने तरीके से इसकी कीमत में इजाफा करना मुश्किल हो जाएगा. पर पशुपालन, डेयरी एवं मत्स्य विभाग के इस प्रस्ताव को उपभोक्ता, खाद्य एवं कृषि मंत्रालय से संबंधित अंतर समिति ने खारिज कर दिया है.
उसका तर्क है कि चूंकि दूध जल्द खराब हो जाता है; इसलिए इसे 22 आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल करना युक्तिसंगत नहीं होगा. भविष्य में भी इसे केवल पाउडर के रूप में ही आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किया जा सकता है. समिति का यह तर्क बहुत हद तक वाजिब लगता है. पर सरकार वास्तव में किसानों की आय को भविष्य में दोगुनी करने का इरादा रखती है तो उसे निश्चित रूप से ऐसा विवेकपूर्ण रास्ता अख्तियार करना चाहिए जिससे दूध कंपनियों द्वारा मनमाने ढंग से दूध की कीमतों में की जाने वाली बढ़ोतरी पर अंकुश लगाया सके और किसानों को उनके उत्पाद का उचित दाम भी अवश्य प्राप्त हो सके.
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