जिम्मेदारी की समझदारी
देश में प्रदूषण से आज हर कोई लस्त-पस्त है. प्रदूषित पर्यावरण की कड़ी मार आज बुजुर्ग से लेकर बच्चों तक पड़ रही है. बड़ी दारुण स्थिति है.
जिम्मेदारी की समझदारी |
खासकर दिल्ली-एनसीआर का इलाका अपने विकास के उस बियावान में फंस कर उलझ गया है, जहां से निकलने में उसे बरसों लगेंगे और वह भी कठोर जिजीविषा दिखाने के बाद.
मगर जिस तरह से राजधानी दिल्ली और उसके पास के इलाके दमघोंटू या कहें गैस चेंबर में बदलते जा रहे हैं, वह चिंता तो पैदा करता ही है, यह सोचने को मजबूर करता है कि मौत की भट्ठी से छुटकारा पाने का उपाय क्या है? जो उपाय पिछले दिनों बताए गए हैं, उससे सरकार की प्रदूषण से बच निकलने की जल्दबाजी ज्यादा दिखती है. ऐसे ‘मेडिकल इमरजेंसी’ के हालात में तात्कालिक उपाय तो जरूरी हैं ही; दीर्घकालीन रणनीति बनाने की महती आवश्यकता है.
ठीक है कि एनसीआर के स्कूलों को कुछ दिनों के लिए बंद करने का आदेश है या मेट्रो के फेरे बढ़ाने की बात है या ट्रकों को रात में दिल्ली में प्रवेश नहीं करने का नियम लागू कर दिया गया हो या पार्किग की दर चार गुना बढ़ा दी गई हो. लेकिन क्या ऐसे उपायों से हम एक बड़ी आबादी को राहत दे पाने की स्थिति में हैं? बिल्कुल नहीं. ऐसे कई निर्णय समस्या सुलझाने के बजाय हालात को पेचीदा और नुकसानदेह बनाने की ओर इशारा करते हैं.
मसलन, पार्किग का किराया चार गुना बढ़ाने का तर्क सौ फीसद अतार्किक है. एक तरफ हम मेट्रो के फेरे बढ़ाते हैं वहीं दूसरी तरफ पार्किग की दर में बेतहाशा वृद्धि करते हैं. ऐसे अनर्गल निर्णय से दिल्ली या उसके आसपास की सेहत रत्ती भर भी सुधरने वाली नहीं. हमें व्यावहारिक नियम-कायदों और समाधान के रास्ते तलाशने होंगे. और जो पहले से मौजूद हैं, उनका अनुसरण भी करना होगा. पर्यावरण की शिक्षा प्राथमिक स्तर से शुरू करनी होगी. साथ ही मौसम और पेड़-पौधों की अहमियत भी बच्चों को बतानी होगी.
हम विकास की सीढ़ियां भले द्रुत गति से नाप रहे हों किंतु जब तक शुद्ध हवा, जल और खान-पान की उपलब्धता नहीं होगी, तब तक हर विकास बेमानी है. ऐसे विकास से क्या लाभ जो आराम और निश्चिंतता का बोध कराने के बजाय डराएं और चिढ़ाएं. जो हालात दिवाली के बाद से दिल्ली-एनसीआर की अवाम झेल रही है, उस पर संजीदा होना ही पड़ेगा वरना हमारे दिन गिनती के ही रह जाएंगे. यहीं नागरिक जिम्मेदारी की हद शुरू होती है.
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