जो खेलेगा वो खिलेगा
खेल के मैदान में परचम फहराने के लिए केंद्र सरकार की ताजा पहल सराहनीय है.
जो खेलेगा वो खिलेगा |
सरकार ने तय किया है कि अब हर साल 1000 बच्चों का चयन किया जाएगा और प्रत्येक बच्चे पर हर साल पांच लाख रुपये खर्च किए जाएंगे. स्वाभाविक है खेल को प्राथमिकता में रखने का वक्त आ गया है.
अलबत्ता, चुनौतियां बेशुमार हैं. चूंकि कई देशों में बचपन में ही बच्चों को उसकी क्षमता और रुचि के आधार पर सलेक्ट कर लिया जाता है और गहन अभ्यास और दूरगामी लक्ष्य को केंद्र बनाकर पदक के लिए तैयार किया जाता है. लेकिन हमारे यहां इस सोच का नितांत अभाव है. क्रिकेट के अलावा कोई दूसरा खेल भी है, इस तथ्य को सिरे से खारिज किया जाता रहा है.
नतीजतन हम फिसड्डी हैं. आमतौर पर क्रिकेट की दीवानगी वाले देश के तौर पर हमारी पहचान रही है. लेकिन बाकी खेलों में हमारी हालत बेहद खस्ताहाल है. एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले मुल्क में खेल की दयनीय स्थिति काफी कुछ सोचने को मजबूर करती है. जबकि पड़ोसी चीन की आबादी हमसे थोड़ी ही ज्यादा है.
मगर खेल में उसने काफी बुलंदी हासिल की है. 1954 में चीन ने ओलंपिक में शिरकत की थी. किंतु उसकी झोली खाली रही. फिर 32 साल बाद 1984 में उसने 15 पदक हासिल किया. ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां विभिन्न देशों ने खेल की दुनिया में पिछड़ेपन के बाद हैरतअंगेज वापसी की. और यह सब महज एक दिन में हासिल नहीं हुआ. सालों लग गए.
योजनाएं बनाई गई, फिर खेल में भारी धन को झोंका गया, दूरगामी लक्ष्य को साधा गया, खेल संस्कृति को बढ़ावा दिया गया वगैरह-वगैरह. सरकार की ताजातरीन कोशिश प्रशंसा के योग्य है. मगर सिर्फ धन का निवेश ही खेल में हमें अव्वल नहीं बना देगा. इसके लिए ईमानदार सोच, खेल संस्थानों-कोचों की जवाबदेही के अलावा उस माहौल को रचना होगा, जो दुनिया के बाकी देशों ने काफी पहले रच डाला है. यानी अभी तो हम शैशव अवस्था में हैं.
खेल में अच्छा प्रदर्शन सिर्फ पदक पाने भर नहीं होता बल्कि यह किसी भी देश की मानसिक अवस्था, सजगता, तंदरुस्ती और समृद्धि को भी प्रतिबिंबित करता है. दुर्भाग्य से पूर्व की सरकारों ने इस ओर से आंखें मूंद रखी थीं. हां, एकाध प्रयास जरूर अच्छे हुए परंतु व्यापक स्तर पर हमने जमीनी हकीकत को नजरअंदाज ही किया. खेल और खिलाड़ियों के प्रति धारणा में भी तब्दीली आई है. यानी ‘जो खेलेगा वही खिलेगा.’
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