इस बार कुपवाड़ा
आतंकियों ने इस बार कुपवाड़ा के सैन्य शिविर को अपना निशाना बनाया है. बृहस्पतिवार को तड़के हुए हमले में एक अफसर समेत तीन सैनिक शहीद हो गए हैं.
इस बार कुपवाड़ा |
यह एक सिलसिला बना हुआ है. पाकिस्तान और उसके भेजे आतंकियों की तरफ से स्थापित परिपाटी के रूप में, जिसके तहत अग्रिम सीमा चौकियां या प्रदेशों के नागरिक ठिकानों को शिकार बनाया जाता रहा है. यह सब उस बहुप्रचारित सर्जिकल स्ट्राइक की अप्रत्याशित कामयाबी के बाद भी जारी है.
उरी में पिछले सितम्बर में 19 सैनिकों की शहादतों का ‘बदला’ लेने के लिए वह स्ट्राइक की गई थी. हालांकि पाकिस्तान ने इसके एकाध महीने बाद नवम्बर में, जम्मू के नगरोटा में हमारे दो मेजरों समेत सात जवानों को मार कर स्ट्राइक को बेअसर कर दिया था.
यह तो पता नहीं चला कि नगरोटा के बाद कौन-सी स्ट्राइक हुई पर पाकिस्तान की तरफ से कश्मीर में उत्पात के बहुआयामी उत्पादन में उल्लेखनीय आनुपातिक अंतर नहीं आया. सैनिकों पर हमले, घुसपैठ की कोशिशों, नागरिक समाज की मानसिकता को राज्य-सुरक्षा बलों के विरुद्ध भड़काते हुए उसे निरंतर प्रदर्शन मोड में रखना और युवाओं को गुमराह कर पैसे के जोर पर पत्थरबाजी के लिए उन्हें सड़कों पर उतारने के सिलसिलों में पाकिस्तान की मौजूदगी रही है.
यह ठीक है कि जम्मू-कश्मीर की संवदेनशील ऐतिहासिक-भू-सामरिक अवस्थिति और विवाद को देखते हुए उसके आखिरी समाधान तक उपद्रवों से निजात संभव नहीं है. फिर भी इससे इनकार नहीं कहा जा सकता कि कश्मीर को जिस अतिरिक्त निगरानी तंत्र की जरूरत है, सरकार की तरफ से उसकी उपेक्षा हुई है.
सरकार के इन ‘तोतारंटत’ प्रतिक्रियाओं-‘जवानों का बलिदान बेकार नहीं जाएगा’-से हमलों की बारम्बरता को लम्बे समय तक रोकने का कोई विजन नहीं मिलता. हर हमला यही बताता है कि पिछली चूकों से किसी भी स्तर पर कोई सबक नहीं लिया गया. विधान सभाओं/संसद में मंत्री के दिए आश्वासनों और दावों के बावजूद न तो खुफिया तंत्र मजबूत किया गया और न सैन्य जरूरतों को. राज्य को ज्यादा तवज्जो देने की जरूरत है-प्रधानमंत्री स्तर तक.
लेकिन जिस तरह से यह सूबा अमन की तरफ जाते-जाते मुड़ा है, उसको देखते हुए कश्मीर को लेकर जारी नीतियों की पुनर्समीक्षा की जरूरत है. ऐसी कार्रवाई की देश को अपेक्षा है, जिससे हमले के दोहराव का विचार भी प्रतिपक्षी को सिहरा दे.
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