कश्मीर की उलझन
जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ हुई बातचीत में कश्मीर में अमन-चैन और शांति बहाली का फौरी तौर पर कोई स्पष्ट फॉर्मूला नहीं निकल पाया.
कश्मीर की उलझन |
हालांकि, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वहां की मौजूदा स्थिति में सुधार के सारे रास्ते बंद हो गए हैं. दरअसल, कश्मीर के लिए यह सकारात्मक अवसर है कि वहां पीडीपी-भाजपा गठबंधन की लोकप्रिय सरकार है और जिसे केंद्र की भाजपा सरकार का पूरा सहयोग और समर्थन प्राप्त है.
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को कश्मीर की जनता का विश्वास अर्जित करने के लिए इस अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए. गरीबी और अशिक्षा को दूर करने के लिए नये-नये रोजगार सृजित करके वहां की जनता का भरोसा जीता जा सकता है. इसके लिए केंद्र सरकार को भी पहल करनी चाहिए. दरअसल, पिछले छह दशक का इतिहास बताता है कि कश्मीर के लिए उथल-पुथल और हिंसा कोई नई परिघटना नहीं है.
वहां कई उतार-चढ़ाव आए हैं. हिंसा के बाद अमन-चैन और खुशहाली भी कायम हुई है. लेकिन हिंसा के मौजूदा दौर की प्रकृति अतीत से कुछ मायने में अलग है, जो ज्यादा चिंताजनक हैं. छात्राओं द्वारा सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ पथराव करना भी रणनीति का हिस्सा है. इसे कश्मीर की हिंसा की प्रकृति में एक नये आयाम के तौर पर देखा जा रहा है.
इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि पीडीपी-भाजपा की गठबंधन सरकार विशेष रूप में कश्मीर की अवाम का विश्वास अर्जित करने में नाकाम रही है. यह बात मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के राजनीतिक कॅरियर के प्रतिकूल जाती है, जो अतीत में अलगाववादियों के प्रति नरम रुख रखतीं थीं. इसलिए उन्हें ऐसा माहौल बनाने के लिए कुछ ठोस उपाय करने की जरूरत है, जिससे आम जनता के साथ उनका सीधा संवाद कायम हो.
केंद्र सरकार को भी यह समझना होगा कि सिर्फ सेना और अर्ध-सैनिक बलों के बूते कश्मीर में शांति बहाली नामुमकिन है. कश्मीर समस्या का राजनीतिक समाधान का यही अर्थ निकलता है कि लोकप्रिय सरकार के प्रतिनिधि और आम जनता के बीच की चौड़ी खाई को पाटा जाए. आम जन और नेता के बीच पारस्परिक विश्वास कायम करके ही कश्मीर में शांति बहाली की उम्मीद की जा सकती है.
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