कांग्रेस की जनवेदना
कांग्रेस पार्टी पूरे आत्मविश्वास के साथ यह मानकर चल रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विमुद्रीकरण की योजना देश के गरीबों पर सर्जिकल स्ट्राइक है.
कांग्रेस की जनवेदना |
आम जनता इस योजना से नाराज है और आने वाले दिनों में इसके गंभीर राजनीतिक-आर्थिक दुष्परिणाम सामने आएंगे.
इसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए कांग्रेस अपनी रणनीति बनाने की कवायद कर रही है. बीते बुधवार को दिल्ली में आयोजित कांग्रेस की ‘जन वेदना सम्मेलन’ इसी रणनीति का हिस्सा है.
इस सम्मेलन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की विचारधारा की जमकर खिल्ली उड़ाई. लोकतंत्र में सत्तापक्ष की आलोचना करना विपक्ष का राजनीतिक और लोकतांत्रिक कर्त्तव्य है, लेकिन राहुल गांधी के भाषण को सुनकर लोगों को निराशा ही हुई होगी. उन्हें बोलने से पहले कम-से-कम यह अवश्य सोचना चाहिए कि उनकी बातें उन्हें छोटा बना रही हैं या बड़ा. विपक्ष की रणनीति सिर्फ सत्तापक्ष की आलोचना करना ही नहीं होना चाहिए.
विपक्ष की आलोचनाएं ज्यादा सार्थक, ज्यादा गंभीर और जनता को प्रभावित करने वाली भी होनी चाहिए. इस कसौटी पर राहुल का भाषण अपनी छाप छोड़ने में विफल रहा क्योंकि विमुद्रीकरण के दुष्परिणामों के पक्ष में वह अपनी बात प्रभावी ढंग से रख नहीं पाए. इसके विपरीत, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी बात को बहुत ही प्रभावी ढंग से रखा.
फिर विमुद्रीकरण से आम जनता नाराज है, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल पाया, क्योंकि किसी सामाजिक समूह या संगठनों की ओर से न तो कोई विरोध के स्वर उठे और न कहीं से अराजकता की खबरें आई. राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं या अनुयायियों को आम जनता नहीं माना जा सकता. इसलिए सवाल उठता है कि कांग्रेस जिसकी वेदना की अभिव्यक्ति कर रही है आखिर वह है कहां! तो क्या यह मान लेना चाहिए कि विमुद्रीकरण की वेदना सिर्फ सियासी दलों की है.
इसलिए हर एक बात की आलोचना करने की रणनीति से विपक्ष अपनी सार्थकता खो रहा है. लोकतंत्र में किसी राजनीतिक नेता के लिए महज अच्छा वक्ता होना काफी नहीं है, बल्कि उसके वक्तव्य तथ्यों पर आधारित हों, प्रामाणिक हों और व्यापक जन हितों से अनुमोदित हों ताकि आम जन उसके प्रति एक सक्षम वैकल्पिकता के प्रति आस्त रह सके. राहुल गांधी से यह आश्वासन मिलता नहीं दिखता है.
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